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पंदित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व "केई जीव निश्चयकौं न जानते निश्चयाभास के श्रद्धानी होई आपकौं मोक्षमार्गी मानें हैं। अपने प्रात्मा कौं सिद्ध समान अनुभवै हैं । सो आप प्रत्यक्ष संसारी हैं। भ्रमकरि आपकौं सिद्ध मानें सोई मिथ्यादृष्टि है । शास्त्रनिविर्षे जो सिद्ध समान प्रात्माकों कह्या है, सो द्रव्य दृष्टि करि क ह्या है, पर्याय अपेक्षा समान नाहीं है। जैसे राजा पर रंक मनुष्यपने की अपेक्षा समान हैं, राजापना और रंकपना की अपेक्षा तो समान नाहीं। तैसें सिद्ध अर संसारी जीवत्वपनेकी अपेक्षा समान हैं, सिद्धपना संसारीपना की अपेक्षा तो समान नाहीं। यह जैसे सिद्ध शुद्ध हैं, तैसें ही आपको शुद्ध माने । सो शुद्ध-अशुद्र अवस्था पर्याय है । इस पर्याय अपेक्षा समानता मानिए, सो यह मिथ्यादृष्टि है।
बहुरि आपके केवलज्ञानादिकका सद्भाव माने, सो पापकै ती क्षयोपशमरूप मतिश्रुतादि ज्ञान का सद्भाव है । क्षायिक भाव ती कर्म का क्षय भए होइ है । यह भ्रमते कर्मका क्षय भए बिना ही क्षायिक भाव माने । सो यह मिथ्यादृष्टि है। शास्त्रविष सर्वजीवनि का केवल शान स्वभाव कहा है, सो शक्ति अपेक्षा कह्या है । सर्व जीवनिविर्ष केवलज्ञानादिरूप होने की शक्ति है । वर्तमान व्यक्तता तो व्यक्त भए ही कहिए'।"
उक्त कथन को अधिक स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा है कि जल का स्वभाव शीतल है, किन्तु अग्नि के संयोग से वर्तमान में वह गर्म है । यदि कोई व्यक्ति जल का शीतल स्वभाव कथन सुन कर गर्म खौलता हुआ पानी पी लेबे तो जले बिना नहीं रहेगा। उसी प्रकार आत्मा का स्वभाव तो केवलज्ञान अर्थात् पूर्णज्ञान स्वभावी है, किन्तु वर्तमान में तो बह अल्पज्ञानरूप ही परिमित हो रहा है । यदि कोई उसे वर्तमान पर्याय में भी केवलज्ञानरूप मान ले तो अपेक्षा और सन्दर्भ का सही ज्ञान न होने से भ्रम में ही रहेगा ।
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' मो० मा० प्र०, २८३-२८४