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वर्ण्य विषय और दार्शनिक विचार
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इनका विस्तृत वर्णन उन्होंने मोक्षमार्ग प्रकाशक के सातवेंआठवें अधिकार में क्रमशः किया है। सातवें अधिकार में लेखक भवरूपी तरु का मूल एक मात्र मिध्याभाव को बताता है । इस मिथ्यात्व का एक अंश भी बुरा है, अतः स्थूल मिया की तरह सूदन मिथ्यात्व भी त्यागने योग्य है । स्थूल मिथ्याभाव का वर्णन पिछले अध्यायों में किया जा चुका है। इस अध्याय में सूक्ष्म मिथ्यात्व का विवेचन है । सूक्ष्म मिथ्याभाव से पंडितजी का श्राशय जन अन्तरंग व वाह्य जैन श्राचार-विचारों से है जो तात्विक दृष्टि से विवराभास हैं ।
पंडितजी के अनुसार जैनधर्म विशुद्ध श्रात्मवादी है। उसकी कथनशैली में यथार्थ कथन को निश्चय और उपचारित कथन को व्यवहार कहा है । व्यवहार निश्चय का साधन है, साध्य नहीं । व्यवहार नय की अपनी अपेक्षाएँ और सीमाएँ हैं । उन सीमाओं को नहीं पहिचान पाने से भ्रम उत्पन्न हो जाते हैं । जैन दर्शन का प्रत्येक वाक्य स्याद्वाद - प्ररणाली के अन्तर्गत कहा जाता है। उसके अपने अलग सन्दर्भ और परिप्रेक्ष्य होते हैं। वह कथन किस परिप्रेक्ष्य और संदर्भ में हुआ है, इसे समझे बिना उसका मर्म नहीं समझा जा सकता है, उल्टा गलत आशय ग्रहण कर लेने से लाभ के स्थान पर हानि की सम्भावना अधिक रहती है ।
पंडित टोडरमल ने जैन शास्त्रों के कथनों को उनके सही सन्दर्भ में देखने का आग्रह किया है और कई उदाहरण प्रस्तुत करके यह स्पष्ट करने का सफल प्रयास किया है कि किस वाक्य का किस प्रकार गलत अर्थ समझ लिया जाता है और उसका वास्तविक अर्थ क्या होता है । प्रत्येक कथन एक निश्चित प्रयोजन लिए होता है । उस प्रयोजन को लक्ष्य में रखे बिना उसका अर्थ निकालने का प्रयास यदि किया जायगा तो सत्य स्थिति हमारे सामने स्पष्ट नहीं हो पायी, किन्तु सन्देह उत्पन्न हो जायेंगे | उक्त तथ्यों को स्पष्ट करने के लिए पंडितजी द्वारा प्रस्तुत कुछ अंश उदाहरणार्थं नीचे दिये जाते हैं :