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________________ २२२ पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तव उन्हें बिलकुल स्वीकार नहीं । वे उस पर कस कर प्रहार करते हैं। उनके ही शब्दों में : "देखो काल का दोष, जैनधर्म विर्षे भी धर्म की प्रवृत्ति भई। जैनमत विर्षे जे धर्मपर्व कहे हैं, तहाँ तो विषय-कषाय छोरि संयमरूप प्रवर्तना योग्य है। ताकी तो आदर नाहीं पर व्रतादिक का नाम धराय तहाँ नाना श्रृंगार बनावें वा गरिष्ठ भोजनादि करै वा कुतुहलादि करै वा कषाय वधाबने के कार्य करें, जूवा इत्यादि महापापरूप प्रवत्त' ।" ___ "बहुरि जिन मंदिर तो धर्मका ठिकाना है । तहाँ नाना कुकथा करनी, सोवना इत्यादिक प्रमाद रूप प्रवत्तै वा तहाँ बाग बाड़ी इत्यादि बनाय विषय-कषाय पोर्षे । बहुरि लोभी पुरुषनिर्की गुरु मानि दानादिक दें वा तिनकी असत्य-स्तुतिकरि महंतपनों माने, इत्यादि प्रकार करि विषय-कषायनिक तौ बधावे पर धर्म मान । सौ जिनधर्म तौ वीतराग भावरूप है । तिस विषं ऐसी प्रवृत्ति कालदोषते ही देखिए है ।" उक्त कथन में तत्कालीन धार्मिक समाज में व्याप्त शिथिलाचरणा का चित्र आ गया है। लेखक का बह रूप भी सामने आया है, जो उसके जीवन में कूट-कूट कर भरा था। उसने यहाँ स्पष्ट घोषणा कर दी है कि - जैन धर्म तो वीतराग भाव का नाम है, उसमें राग-रंग को कोई स्थान प्राप्त नहीं है । सूक्ष्मातिसूक्ष्म मिथ्याभाष जैनियों में पाये जाने वाले सूक्ष्मातिसूक्ष्म मिथ्याभाव को उन्होंने दो रूपों में रखा है :(१) निश्चय और व्यवहार को न समझ पाने के कारण होने वाला। (२) चारों अनुयोगों की पद्धति को सही रूप में न समझ पाने के कारण होने वाला। ' मो० मा०प्र०, २७६-८० २ वही, २८०
SR No.090341
Book TitlePandita Todarmal Vyaktitva aur Krititva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages395
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Story
File Size7 MB
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