________________
वर्ण्य-विषय और दार्शनिक विचार
२२१ वे सती होना, काशीकरोत लेना आदि आत्मघाती प्रवृत्तियों का धर्म के नाम पर होना धर्म के लिए कलंक मानते थे और उस सामन्त युग में उन्होंने उनका डट कर विरोध किया। उन्होंने निर्भय होकर उनके विरुद्ध आवाज उठाई, उन्हें कुधर्म घोषित किया। उन्होंने यह सब कुछ अपने जीवन की बाजी लगा कर किया। उनके निम्नलिखित शब्दों में क्रान्ति का शंखनाद है :___ "बहुरि केई इस लोक विर्षे दुःख साह्या न जाय या परलोक विर्षे इष्ट की इच्छा वा अपनी पूजा बढ़ाबने के अधि वा कोई क्रोधादिककरि अपघात करें। जैसे पतिवियोगते अग्नि विर्षे जलकरि सती कुहावे है वा हिमालय गलै है, काशीकरोत ले है, जीवित मारी ले है, इत्यादि कार्यकरि धर्म मान हैं। सो अपघातका तो बड़ा पाप है।
गादिकतै मानुराग घमा शा. नौ चपपनगादि किया होता। मरि जाने में कौन धर्म का अंग भया । तातै अपघात करना कुधर्म है । ऐसे ही अन्य भी घने कुधर्मके अंग हैं। कहाँ ताई कहिए, जहाँ विषय कषाय बधै अर धर्म मानिए, सौ सर्व कुधर्म जाननें।"
उनका निष्कर्ष है – 'जहाँ विषय-कषाय बढ़े और धर्म माने वह कुधर्म है, क्योंकि विषय-कषायरूप प्रवत्ति तो अधर्म है और अधर्म में धर्मबुद्धि वह कुधर्म है । वस्तुतः विषय-कषाय भाव स्वयं में कुधर्म नहीं हैं, वे तो अधर्म रूप हैं, उन्हें धर्म मानना धर्म है। इस प्रकार उक्त मान्यता ही कुधर्म रूप है। इसी प्रकार रागी-द्वेषी व्यक्ति कुदेव नहीं है क्योंकि वह तो प्रदेव (देव नहीं) है, उसे देव मानना कुदेव है, अतः मान्यता ही कुदेव है, कोई व्यक्ति विशेष नहीं। ऐसे ही शास्त्र और गुरु के सम्बन्ध में भी समझना चाहिए।
धर्म विषय-कषाय के प्रभावरूप है। धर्म की इसी कसौटी पर वे तत्कालीन जैन समाज में प्रचलित धार्मिक क्रियाकाण्डों को कसते हैं 1 जनेतरों की आलोचना से भी कठोर पालोचना वे जैनियों की करते दिखाई देते हैं। धर्म के नाम पर चलने वाला पोपडम
मो. मा०प्र०, २७६