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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तव करिए । ऐसें जो पापीनिके भयकरि धर्मोपदेश न दीजिए तो जीवनिका भला कैसे होय ? ऐसा तो कोई उपदेश है नाहीं, जाकरि सर्व ही चैन पावें । बहुरि वह विरोध उपजाये, सौ विरोध तौ परस्पर हो है । हम लरें नाहीं, वे अाप ही उपशान्त होय जायेंगे। हम तो हमारे परिणामों का फल होगा।"
उनकी दृष्टि में एक वीतराग भाव हो परम धर्म है और वहीं अहिंसा है । नः गा भात की गोलक और हिंसामूलक क्रियाओं को उन्होंने कूधर्म कहा है। धर्म के नाम पर फैले आडम्बर और शिथिलाचार का उन्होंने डट कर विरोध किया है । शैथिल्य के वर्णन में तत्कालीन समाज में धर्म के नाम पर चलने वाली प्रवृत्तियों का चित्र उपस्थित होता है :
___ "बहुरि व्रतादिक करिकै तहाँ हिंसादिक वा विषयादिक बधाव है। सौ ब्रतादिक तो तिनकों घटावने के अथि कीजिए है। बहुरि जहाँ अन्न का तो त्याग करै अर कंदमूलादिकनि का भक्षण कर, तहाँ हिंसा विशेष भई -- स्वादादिक विषय विशेष भए । बहरि दिवस विर्षे तो भोजन कर नाही, पर रात्रि विर्षे करें । सौ प्रत्यक्ष दिवस भौजनतें रात्रि भोजन विर्षे हिंसा विशेष भास, प्रमाद विशेष होय । बहुरि प्रतादिक करि नाना शृंगार बनावै, कुतुहल कर, जूवा प्रादिरूप प्रवर्ते, इत्यादि पापक्रिया करै । बहुरि व्रतादिक का फल लौकिक इष्ट की प्राप्ति, अनिष्ट का नाशौ चाहै, तहाँ कषायनि की तीव्रता विशेष भई । ऐसे व्रतादिक करि धर्म मानें हैं, सौ त्रुधर्म है।
बहुरि भक्त्यादि कार्यनिविर्षे हिंसादिक पाप बधा, वा गीत नृत्यगानादिक वा इष्ट भोजनादिक वा अन्य सामग्नीनि करि विषयनिकौं पौर्षे, कुतूहल प्रमादादिरूप प्रवर्तं । तहाँ पाप तो बहुत उपजावं अर धर्मका किछू साधन नाही, तहाँ धर्म मान सो सब कुधर्म है ।" ।
१ मो० मा० प्र०, २०२ २ बही, २७८-७६