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________________ यय-विषय और दार्शनिक विचार २१६ इस प्रकार उन्होंने उस समय सम्पूर्ण भारतवर्ष में प्रचलित मत-मतान्तर एवं लपासना-पद्धतियों पर अपने विचार प्रस्तुत किए हैं। इससे प्रतीत होता है कि वे मात्र स्वप्नलोक में विचरण करने वाले दार्शनिक न थे वरन् देश-काल की परिस्थितियों से पूर्ण परिचित थे और उन सब के बारे में उन्होंने विचार किया था। उन्होंने गुरुओं के सम्बन्ध में विचार करते हुए कुल अपेक्षा, पट्ट अपेक्षा, भेष अपेक्षा आदि से अपने को गुरु मानने वालों की भी मालोचना की है। इसके बाद वे जैनियों में विद्यमान सूक्ष्म मिथ्याभाव का वर्णन करते हैं । वे लिखते हैं : जे जीव जैनी है, जिन प्राशाकों मानें हैं पर तिनकै भी मिथ्यात्व रहै है ताका वर्णन कीजिए है - जाते इस मिथ्यात्व वैरी का अंश भी बुरा है, तातै सूक्ष्म मिथ्यात्व भी त्यागने योग्य है ।" विविध मत समीक्षा करते समय या जैनियों में समागत विकृतियों की आलोचना करते समय वे अपने वीतराग भाव को नहीं भुलते हैं। इसमें उनका उद्देश्य किसी को दुःख पहंचाना नहीं है और न वे द्वेष भाव से ऐसा करते हैं, किन्तु करुणा भाव से ही यह सब किया है 1 जहाँ वे द्वेषपूर्वक कुछ कहना पसन्द नहीं करते हैं, वहाँ उन्हें भय के कारण सत्य छिपाना भी स्वीकार नहीं है । वे निर्भय हैं, पर शान्त । वे अपनी स्थिति इस प्रकार स्पष्ट करते हैं : "जो हम कषाय करि निन्दा करै वा औरनिकों दुःख उपजावें तो हम पापी ही हैं। अन्य मत के श्रद्धानादिक करि जीवनिकै अतत्त्वश्रद्धान दृढ़ होय, तातै संसारविर्षे जीव दुःखी होय, तातें करुणा भाव करि यथार्थ निरूपण किया है । कोई बिना दोष ही दुःख पावे, विरोध 'उपजावै तो हम कहा करें। जैसे मदिरा की निन्दा करते कलाल दुःख पावें, कुशील की निन्दा करतें वैश्यादिक दुःख पायें, खोटा-खरा पहिचानने की परीक्षा बतावतें ठग दुःख पावें तो कहा १ मो०मा० प्र०, २८३
SR No.090341
Book TitlePandita Todarmal Vyaktitva aur Krititva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages395
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Story
File Size7 MB
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