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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व कुलीनता के अर्थ में अपनाया है। इस सम्मान में पं. मन्द लिखते हैं :
_"जो साँचा भी धर्म को कुलाचार जानि प्रवत है, तो वाकौं धर्मात्मा न कहिए । जाते सर्व कुल के उस आचरण को छोड़ें, तो आप भी छोड़ि दे। बहरि जो वह आचरराव करै है, सो कूल का भय करि कर है। किछ धर्म बुद्धित नाहीं कर है, तातै वह धर्मात्मा नाहीं । तात विवाहादि कुल सम्बन्धी कार्यनि विषं ती कुल नाम का विचार करना और धर्म सम्बन्धी कार्य विर्षे कुल का विचार न करना' ।"
हम जैन हैं, अतः जैनशास्त्रों में जो लिखा है उसे ही सत्य मानते हैं और उनको ही प्राज्ञा में चलते हैं। ऐसा मानने वाले प्राज्ञानुसारी जैनाभास हैं । बिना परीक्षा किए एवं विना हिताहित का विचार किए कोरी प्राज्ञाकारिता गुलाम मार्ग है।
धर्म परम्परा नहीं, स्वपरीक्षित साधना है। पंडित टोडरमल बिना परीक्षण सत्य को भी स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं, वे परीक्षाप्रधानी हैं। 'बाबा बाक्यं प्रमाणम्' उन्हें स्वीकार नहीं है । वे परीक्षोपरान्त प्राज्ञा को स्वीकार करना उपयुक्त मानते हैं । वे स्पष्ट कहते हैं :
"ताते परीक्षा करि जिन वचननि क्रौं सत्यपनी पहिचानि जिन आज्ञा माननी योग्य है। बिना परीक्षा किए सत्य असत्य' का निर्णय कैसे होय ?"
धार्मिक अंधविश्वास उन्हें पसंद नहीं। तर्क की तुला पर जो हल्का सिद्ध हो वह उन्हें मान्य नहीं है और वह किसी भी सत्यान्वेयो को मान्य नहीं हो सकता।
प्राजीविका, मान, बड़ाई आदि लौकिक प्रयोजन सिद्ध करने के लिए धर्म साधन करने वाले व्यक्ति भी धर्म के मर्म को समझने में असमर्थ रहते हैं, क्योंकि उनकी दृष्टि तत्त्व को गहराई में न जाकर अपने लौकिक स्वार्थ सिद्धि की ओर रहती है। धर्मात्मा के लौकिक
१ मो० मा० प्र०, ३१५ ३ वही, ३१६