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________________ वर्ण्य-विषय और वार्शनिक विचार १८७ कषाय मंद हो है, तातै बंध हीन हो है। अशुभ भावनि विर्षे कषाय तीन हो है, तातें बंध बहुत हो है। ऐसे विचार किए अशुभ की अपेक्षा सिद्धान्त विषे शुभ कौं भला भी कहिए है। जैसे रोग तो थोरा व बहुत बुरा ही है। परन्तु बहुत रोग की अपेक्षा श्रोरा रोग की भला भी कहिए।" जिमवारणी में सर्वत्र निश्चय नय की अपेक्षा से कथन करते हुए व्रत, शील, संयमादि वाह्य प्रवत्ति और शुभ भाव को बंध का कारण बता कर आत्मज्ञान और प्रात्मध्यान में प्रवृत्ति करने की प्रेरणा दी गई है, क्योंकि वस्तुतः मुक्ति का कारण एक मात्र शूद्वोपयोग ही है। साथ ही स्पन्न होने और शुभ सा में जाने का भी सर्वत्र निषेध किया गया है। निश्चयाभासी जीव प्रात्मा के शुद्ध स्वरूप को तो पहिचान नहीं पाते एवं अध्यात्म शास्त्रों में निश्चय नय की प्रधानता से किये गए कथनों को पकड़ कर शुभ भावों एवं वाद्याचार का निषेध कर स्वच्छन्द हो जाते हैं। व्यवहाराभासी व्यवहार नय वस्तु के शुद्ध स्वरूप का कथन न करके संयोगी कथन करता है । जैनागम में व्यवहार नय की मुख्यता से बहुत सा कथन है जो सब का सब प्रयोजन विशेष से किया गया है। उक्त कथन का प्रयोजन पहिचाने बिना बाह्य व्यवहार साधन में ही धर्म को कल्पना कर लेने वाले व्यवहाराभासी हैं। व्यवहाराभासी जैनियों को प्रवृत्तियाँ अनेक प्रकार की देखी जाती हैं। कुछ लोग कुल अपेक्षा धर्म मानते हैं । जैन धर्म का स्वरूप जानने का प्रयत्न न करके जैन कुल में उत्पन्न हुए हैं, अतः कुलानुकूल प्राचरण करते हैं और अपने को जैन मान लेते हैं, किन्तु धर्म का कुल से कोई सम्बन्ध नहीं है। हो सकता है उनका आचरण जैन धर्मानकल हो पर उन्होंने उसे जैन दर्शन के मर्म को समझ कर स्वीकार नहीं किया है, किन्तु कुलक्रम में चली आई प्रवृत्ति को १ मो० मा० प्र०, ३०१ २ वहीं, ३१४
SR No.090341
Book TitlePandita Todarmal Vyaktitva aur Krititva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages395
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Story
File Size7 MB
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