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वण्य-विषय और दार्शनिक विचार
२१३ "बहुरि व्याकरण न्यायादिक शास्त्र हैं, तिनका भी थोरा-बहुत अभ्यास करना । जाते इनिका ज्ञान बिना बड़े शास्त्रनिका अर्थ भास नाहीं । बहुरि वस्तु का भी स्वरूप इनकी पद्धति जाने जैसा भास, तैसा भाषादिक करि भासै नाहीं । तातै परम्परा कार्यकारी जान इनका भी अभ्यास करना । परन्तु इनहीं विर्षे फैसि न जाना । किछ इनका अभ्यास करि प्रयोजनभूत शास्त्रनि का अभ्यास विर्षे प्रवर्तना । वहरि वंद्यकादि शास्त्र हैं, तिनत मोक्षमार्ग विर्षे किछू प्रयोजन ही नाहीं । तातै कोई व्यवहारधर्म का अभिप्रायतें बिना खेद इनिका अभ्यास हो जाय तो उपकारादि करना, पाप रूप न प्रवर्तना । पर इनका अभ्यास न होय ती मति होहु, बिगार किछू नाहीं।"
सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका की पीठिका में चतुर और मूर्ख किसान का उदाहरण देकर उन्होंने अपने विचारों को स्पष्ट किया है । उन्होंने लिखा है :
"जैसें स्याना खितहर अपनी शक्ति अनुसारि हलादिकते थोड़ा बहुत खेत को संवारि समय विर्षे बीज बोवे तो ताकौं फल की प्राप्ति होई । तैसें तू भी जो अपनी शक्ति अनुसारि व्याकरणादिक के अभ्यास ते थौरी-बहुत बुद्धि को संवारि यावत् मनुष्य पर्याय बा इंद्वियनि की प्रबलता इत्यादिक प्रवर्ते हैं तावत् समय विर्षे तत्त्वज्ञान को कारण जे शास्त्र तिनिका अभ्यास करेगा तो तुझको सम्यक्तादि की प्राप्ति हो सकेगी। बहुरि जैसे अयाना खितहर हलादिकतें खेत को संवारतासंवारला ही समय को खोने, तो ताको फल प्राप्ति होने की नाही, वृथा ही खेद-खिन्न भया । तैसें तूं भी जो व्याकरणादिकतै बुद्धि को संवारता-संवारता ही समय खोवेगा तो सम्यक्त्वदिक की प्राप्ति होने की नाहीं । वृथा ही खेद-खिन्न भया । बहुरि इस काल विर्षे प्रायु बूद्धि आदि स्तोक हैं तातें प्रयोजन मात्र अभ्यास करना, शास्त्रनि का तो पार है नाहीं ।"
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५ मो मा प्र०, ४३२-३३ २ स चं० पी०, १३