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संबंध में ऐसी मान्यता चली आ रही थी कि उनका २७ वर्ष की आयु में देहावसान हो गया था, लेकिन डाक्टर साहब ने अनेक प्रमाणों से सिद्ध किया है कि वे ४७ वर्ष तक जीवित रहे। प्रलीगंज ( जिला ऐटा यू० पी० ) से प्राप्त हस्तलिखित सामग्री शोध-प्रबंध में उसी रूप में लगाई गई है ( देखिए पृ० ५१-५२), जिसको पढ़ने से हृदय गद्गद् हो जाता है ।
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इसी प्रकार यह मान्यता प्रचलित थी कि पंडितजी को पढ़ाने के लिए बनारस से एक विद्वान् बुलाया गया था। डाक्टर साहब ने उसको अप्रामाणिक सिद्ध किया है। उनका लिखना है कि जिस परिवार के व्यक्ति की छोटी उम्र में आज से २०० वर्ष पूर्व श्रावागमन के समुचित साधनों के अभाव में भी आजीविका के लिए जयपुर से १५० किलोमीटर दूर सिंघारा जाना पड़ा हो, उसका परिवार इतना सम्पश नहीं हो सकता कि उसको पढ़ाने के लिये बनारस से विद्वान् बुलाया गया हो। मैं यहाँ पर यह लिखना चाहूँगा कि आर्थिक स्थिति से इतने कमजोर होते हुये भी पंडितजी अपनी आत्म-साधना च ज्ञानसाधना में निरंतर तत्पर रहे। इससे यह सिद्ध होता है कि आत्मिक पवित्रता का बाहरी संयोगों से कोई मेल नहीं है। यह एक सुखद श्राश्चर्य है कि पंडितजी का सिंघारणा जाना जैन समाज के लिये एक वरदान सिद्ध हुआ। वहाँ पर महान सैद्धान्तिक ग्रंथ 'सम्यग्ज्ञानचंद्रिका' की रचना हुई, जिसका विशद वर्णन आप प्रस्तुत ग्रंथ में स्वयं पढ़ेंगे ।
इस प्रकार के और भी कई तथ्य शोध-प्रबंध के द्वारा प्रकाश में आए हैं। आप स्वयं इस ग्रंथ के माध्यम से उनसे परिचित होकर आश्चर्यान्वित होंगे। उन सब को यहाँ लिख कर मैं आपका विशेष समय नहीं लेना चाहूँगा |
उपर्युक्त शोध-प्रबंध सात अध्यायों में विभक्त है। उनका विस्तृत विवेचन तो थाप स्वयं पढ़ेंगे ही। चतुर्थ अध्याय 'वर्ण्य विषय और दार्शनिक विचार' में जिस सूक्ष्मता से पंडितजी के साहित्य का समग्र जैनदर्शन के परिपेक्ष्य में विवेचन किया गया है, वह डॉ० भारिल्लजी के जैनदर्शन के वर्षों के तलस्पर्शी, गन व गंभीर अध्ययन से ही संभव
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