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________________ पंडित टोरर मत : व्यक्तित्व और कर्तृत्व पुण्य-पाप पुण्य और पाप दोनों प्रात्मा की बिकारी अन्तवृत्तियाँ हैं। देव पूजा, गुरु उपासना, दया, दान आदि के प्रशस्त परिणाम पुण्य-भाव कहलाते हैं और इनका फल लौकिक अनुकूलता की प्राप्ति है। हिंसा, भूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह-संग्रह आदि के भाव पाप-भाब हैं और इनका फल लौकिक प्रतिकूलताएँ हैं । जीवादि सप्त तत्त्वों में पुण्य और पाप मिला कर नव तत्त्व भी कहे गए हैं । जहाँ तत्त्वों की संख्या सात बताई गई है, वहाँ पुण्य-पाप को प्रास्रव-बंध में सम्मिलित कर लिया गया है। वस्तुतः ये प्रास्रव और बंध के ही भेद हैं। इस तथ्य को निम्न चार्ट द्वारा समझा जा सकता है : पुण्य पुग्याधय पाय पुण्यूबंध पापाव पान सामान्यजन पुण्य को भला और पाप को बुरा मानते हैं, क्योंकि पुण्य से मनुष्य व देव गति की प्राप्ति होती है और पाप से नरक और तिर्यंच गति वी। वे यह नहीं समझते कि चारों गतियों संसार हैं, संसार दुःखरूप है, तथा पुण्य और पाप दोनों संसार के ही कारण हैं अतः संसार में प्रवेश कराने वाले पुण्य या पाप भले कैसे हो सकते हैं ? पुण्य बंध रूप है और प्रात्मा का हित मोक्ष (अबंध) दशा प्राप्ति में है। प्रतः पुण्य रूप शुभ कार्य भी मुक्ति के मार्ग में हेय ही हैं। इतना अवश्य है कि पाप-भाव की अपेक्षा पुण्य-भाव को भला कहा गया है, किन्तु मोक्षमार्ग में उसका स्थान अभावात्मक ही है । ' समयसार, गाथा १३ २ वही, १४५
SR No.090341
Book TitlePandita Todarmal Vyaktitva aur Krititva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages395
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Story
File Size7 MB
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