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वयं-विषय और दार्शनिक विचार
१७१ के त्यागने को ही उपवास मान लिया जाता है, परिणामों में भोगों की इच्छा तथा कषायों की ज्वाला कितनी ही प्रज्वलित क्यों न रहे, इस पर ध्यान नहीं देते ।
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कषायों के अभाव में परिणामों की शुद्धता ही वास्तविक तप है और उससे ही निर्जरा होती है । मोक्ष तस्व
प्रात्मा का कर्मबंधन से पूर्णतः मुक्त हो जाना मोक्ष है। यह भी दो प्रकार का होता है-द्रव्यमोक्ष और भावमोक्ष । प्रात्मा के जो शुद्ध भाव कर्मबंधन से मुक्त होने में हेतु होते हैं वे भाव ही भावमोक्ष हैं और आत्मा का द्रव्य कर्मों से मुक्त हो जाना द्रव्यमोक्ष है' | प्रात्मा की सिद्ध दशा का नाम ही मोक्ष है । सिद्ध दशा अनन्त ग्रानन्दरूप है। वह आनन्द अतीन्द्रिय ग्रानन्द है। उस अलौकिक आनन्द की तुलना लौकिक इन्द्रियजन्य ग्रानाद ये नहीं की जाती है, पर संसारी आत्मा को उक्त अतीन्द्रिय अानन्द का स्वाद तो कभी प्राप्त हुआ नहीं, अतः उस प्रानन्द की कल्पना भी वह इस लौकिक इन्द्रियजन्य आनन्द से करता है, निराकुलता रूप मोक्ष दशा को पहिचान नहीं पाता। पंडित टोडरमलजी लिखते हैं :___"स्वर्ग विर्षे सुख है, तिनितें अनन्त गुरगों मोश्न विर्ष मुख है। सो इस गुणकार विर्षे स्वर्ग-मोक्ष सुख को पा जाति जान है। तहाँ स्वर्ग विष तौ विषयादि सामग्रीजनिन मुख हो है, ताकी जाति याकौं भासे है पर मोक्ष विर्षे विषयादि सामग्री है नाहीं, लो बहाँ का सुख की जाति याकौं भास तौ नाहीं परन्तु स्वर्ग तें भी मोक्ष को उत्तम, महापुरुष काहै हैं, तातें यह भी उत्तम ही मान है। जैसे कोऊ गान का स्वरूप न पहिचानै परन्तु सर्व सभा के सराहैं, तातं आप भी सराहै है । तैसे यह मोक्ष कौं उत्तम मान है।"
' ब्रम्पसंग्रह, गाथा ३७ २ मो० मा०प्र०, ३४२