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कर + इ = करि
करि मंगल करिहौं महा,
ग्रंथ करन को काज । जात मिलै समाज सब,
पावै निज पद राज ॥ त्याग -- इ = त्यागि
गृहस्थपनौं त्यागि मुनिधर्म
अंगीकार करि.....! विचार -- ई - विचारि अपना प्रयोजन विचारि अन्यथा
प्ररूपण करें तो राग-द्वेष नाम
पावै। बन +माय = बनाय
ते झूठी कल्पित युक्ति बनाय विषय-कषायाशक्त पापी जीवनि
करि प्रगट किए हैं। पा+प्रायपाय
प्रधान पद कौं पाय संघ विर्षे
प्रधान भये । गा -|- प्राय = गाय
गाय गाय भक्ति करें। उपज +पाय - उपजाय तिनको लोभ कषाय उपजाय धर्म
कार्यनि विर्षे लगाइये हैं। चुर + आय = चुराय साहू के धनकं चुराय अपना माने
तौ गुमास्ता चोर ही कहिए । उक्त विवेचन से निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि टीकाओं और मोक्षमार्ग प्रकाशक में प्रयुक्त भाषा परम्परागत तत्कालीन प्रचलित अजभाषा ही है जिसे उन्होंने देशी कहा है, यद्यपि उसमें स्थानीय बोलचाल के शब्दों का भी प्रयोग किया गया है। आध्यात्मिक विद्या का प्रतिपादन होने के कारण इनकी गद्य शैली संस्कृतनिष्ठ है अर्थात् उसमें तत्सम शब्दों के प्रयोग अधिक हैं । उसकी तुलना में पद्म साहित्य की भाषा में तद्भव शब्द अधिक है। इसके अतिरिक्त स्थानीय देशी शब्दों का भी प्रयोग है। उर्दू का प्रभाव नगण्य है क्योंकि उसके बहुत कम शब्द मिलते हैं। इस प्रकार उनकी भाषा में देशी ठाठ है। भाववाचक संज्ञामों में 'आई, स्व, स्य,