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गद्य शैली
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ताकरि जीवक निश्चय होय जो मेरे ऐसे ही कर्मबन्धन है। बहुरि तिस कर्मबन्धन के दूरि होने का उपाय अनेक प्रकार बताइए है पर तिस उपाय की याको प्रतीति अनाइये है, इतना तो शास्त्र का उपदेश है । बहुरि यहु जीव ताका साधन कर तो कर्मबन्धनतें मुक्त होय अपना स्वभावरूप प्रवर्ते, सो यह जीव का कर्तव्य है। सो इहाँ प्रथम ही कर्मबन्धन का निदान बताइये है।"
"बहुरि जैसे वैद्य है सो रोग का निदान अर ताकी अवस्था का वर्णन करि रोगी कौं रोग का निश्चय कराय पीछे तिसका इलाज करने की रुचि करावे है, तैसें यहाँ संसार का निदान वा ताकी अवस्था का बर्णन करि संसारीकौं संसार रोग का निश्चय कराय अब तिनिका उपाय करने की रुचि कराईए है। जैसे रोगी रोगते दुःखी होय रह्या है परन्तु ताका मूल कारण जाने नाही, साँचा उपाय जाने नाहीं पर दुःख भी सह्या जाय नाहीं। तब आपको भास सो ही उपाय कर तातें दुःख दूरि होय नाहीं। तब तड़फि-तड़फि परवश हवा तिन दुःखनिकों सहै है परन्तु ताका मूल कारण जाने नाहीं । याकौं देद्य दुःख का मूल कारण बतावे, दुःखका स्वरूप बतावै, याके किये उपायनिक झंठ दिखावै तब साँचे उपाय करने की रुचि होय । तैसेंही यह संसारी संसारतें दुःखी होय रहा है परन्तु ताका मूल कारण जान नाहीं, पर सांचा उपाय जान नाहीं भर दुःख भी सस्या जाय नाहीं। तब प्रापकौं भासे सो ही उपाय करे तातै दुःख दूरि होय नाहीं। तब तड़फि-तड़फि परवश हुवा तिन दुःखनिकी सहै है । यार्को यहाँ दुःखका मूल कारण बताइए है, दुःखका स्वरूप बताइए है अर तिन उपायनिकू झूठे दिखाइए तो साँचे उपाय करने की रुचि होय, तातें यह वर्णन इहाँ करिये है।"
पंडितजी अपने विचार पाठक या श्रोता पर लादना पसंद नहीं करते हैं । जैसे वैद्य रोगी को अपने विश्वास में लेता है, उससे पूछता है
. मो. मा० प्र०, ३१-३२ २ वही, ६५-६१