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पूर्व-धार्मिक व सामाजिक विचारधाराएं और परिस्थितियाँ
आहार-विहार में, धार्मिक क्रियाओं तथा वस्त्रादि के उपयोग में कोई मर्यादा न रह गई थी। साधुजन अपने प्रत्येक शिथिलाचार को 'पापद्धर्म' कहकर अथवा स्वयं को सुधारवादी कहकर ढकते चले जा रहे थे । धार्मिक दृढ़ता (काट्टरता नहीं) का प्रायः प्रभाव होता जा रहा था | विक्रम की १७ वीं शती में पं० बनारसीदाम ने जिस शुद्धाम्नाय का प्रचार किया और जिसे वि० की उन्नीसवीं शती में पं० टोडरमल ने प्रौढ़ता प्रदान की वह इन भट्टारकों के विरोध में ही था।
श्वेताम्बराचार्य महामहोपाध्याय मेघविजय ने वि० सं० १७५७ के लगभग आगरा में रहकर एक 'यक्तिप्रबोध' नामक प्राकृत ग्रंथ स्वोपज्ञ संस्कृत टीका सहिन बनाया था। इसका उदेपा बनारमी मन खण्डन ही था। उसका दूसरा नाम भी 'बनारमी मत खण्डन' रखा है । उसमें लिखा है कि बनारसी मत बालों की दृष्टि में दिगंवरों के भट्टारक भी पूज्य नहीं हैं। जिनके निल-तुष मात्र भी परिग्रह है, वे गुरु नहीं हैं।
धार्मिक शिथिलता और बाहरी प्राइम्बर के विरुद्ध यह सफल क्रांति अध्यात्मपंथ या तेरहपंथ (तेरापंथ) के नाम से जानी जानी है। इसने मठपति भट्टारकों की प्रतिष्ठा का अन्त कर दिया और - -
- 'क० ब० जी० कु०, ७६ २ तम्हा दिगम्बराएं एए भट्टारगा वि सो पुज्जा ।
तिलतूसमेतो जेसि परिगहो गव ते गुरुगो ॥१६॥ ३ तेरापंथ व तेरहपंथ ये दोनों नाम एक ही पंथ के अर्थ में विभिन्न विद्वानों द्वारा विभिन्न स्थानों पर प्रयुक्त हुए हैं। जैसे :(क) १. क है जोय अहो जिन तेरापंथ तेरा है।
- प्रवचनसार भाषा प्रयस्ति २. हे भगवान म्हां तो थांका बचना के अनुसार चला हो तात तेरापंथी हों।
- ज्ञानानन्द श्रावकाचार ३. पूर्व रीति तेरह थीं, तिनकों उटा विपरीत चले, तात तेरापंथ भवै ।
- तेरहपंथ खंडन ४. कपटी तेरापंथ है जिनसो कपट कराहि ।
- मिथ्यात्व खंडन