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पंजित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व लिखा है- 'अवार दोय तीन सन्पुरुष हैं।' सो नियम ते इतने ही नाहीं। यहाँ 'थोरे हैं ऐसा प्रयोजन जानना । ऐसे ही अन्यत्र जानना' ।"
(२) “बहुरि प्रथमानुयोग विर्षे कोई धर्मबुद्धित अनुचित कार्य करै ताकी भी प्रशंसा करिये है। जैसे विष्णुकुमार मुनिन का उपसर्ग दूरि किया, सो धर्मानुरागतें किया, परन्तु मुनिपद छोड़ि यह कार्य करना योग्य न था । जाते ऐसा कार्य तो गृहस्थधर्म विर्षे सम्भवै पर गृहस्थधर्मत मुनि धर्म ऊँचा है। सो ऊँचा धर्मकौं छोड़ि नीचा धर्म अंगीकार किया सो अयोग्य है । परन्तु वात्सल्य अंग की प्रधानता करि विष्णुकुमारजी की प्रशंसा करी। इस छल करि औरनिकों ऊँचा धर्म छोड़ि नीचा धर्म अंगीकार करना योग्य नाहीं ।" ।
(३) "बहुरि जैसे गुवालिया मुनिकों अग्नि करि तपाया, सो करुणातें यह कार्य किया। परन्तु प्राया उपसर्गकौं तो दुरि कर, सहज अवस्था विर्षे जो शीतादिक की परीषह हो हैं, तिसकौं दूर किए रति मानने का कारण होय, तामैं उनकी रति करनी नाहीं, तब उलटा उपसर्ग होय । याहीसे विवेकी उनकै शीतादि का उपचार करते नाहीं। गुवालिया अविवेकी था, करुणा करि यह कार्य किया, ताते याकी प्रशंसा करी। इस छल करि औरनिकौं धर्मपद्धति विर्षे जो विरुद्ध होय सो कार्य करना योग्य नाहीं।"
(४) "बहुरि केई पुरुषों ने पुत्रादि की प्राप्ति के अथि वा रोग कष्टादि दूरि करने के अथि चैत्यालय पूजनादि कार्य किए, स्तोत्रादि किए, नमस्कारमन्त्र स्मरण किया। सो ऐसे किए तो निःकांक्षित गुण का प्रभाव होय, निदानबंध नामा प्रार्तध्यान होय । पाप ही का प्रयोजन अंतरंग विर्षे है, तातें पाप ही का बंध होई। परन्तु मोहित होय करि भी बहुत पाप बंध का कारण कुदेवादिक का तो पूजनादि न किया, इतना वाका गुण ग्रहरा करि वाकी प्रशंसा करिए है। इस
'मो० मा०प्र०,४३८-४३६ ३ वही, ४०२ । बही, ४०२