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कसोटी
यह सोचना गलत है कि प्रवृत्ति हमेशा प्रवृत्ति रहती है और निवृत्ति हमेशा निवृत्ति । कभी प्रवृत्ति निवृत्तिमूलक हो सकती है
और कभी निवृत्ति प्रवृत्तिमूलक । पं० टोडरमल का मुख्य तर्क यह है है कि प्रवृत्ति और निवृत्ति का संग्रह या त्याग आध्यात्मिकता की कसौटी नहीं है, उसकी असली कसौटी है बीतरागता। प्रवृत्ति यदि वीतरागता में सहायक है तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए और यदि निवृत्ति राग या कपाय को बढ़ातो ह तो ठीक नहीं । वीतरागता और सम्यग्दृष्टि का चोलो-दामन का सम्बन्ध है, यह अन्तविवेक वीतरागता के बिना सम्भव नहीं है । अतः यदि अन्तविवेक मनुष्यता को धारण करने वाला धर्म हो तो यह भी मानना होगा कि उसका पूर्ण विकास वीतराम दृष्टि में ही सम्भव है। वीतरागता पशु में भी होती है, क्योंकि वह चेतन है इसलिए उसमें यदि राग है तो वीतरागता भी होगी ही । अतः वीतरागता केवल निवृत्ति नहीं है वरन् विवेकपूर्वक निवृत्ति है। इसलिए जो लोग निवृत्ति के नाम पर बिवेकशून्य प्राचरण करते हैं उन्हें भर्तृहरि के शब्दों में क्या यह कहा जाय कि वे पशु से भी गये बीते हैं ?
इस में सन्देह नहीं कि पंडित टोडरमल ज्ञान-साधना और साधुता के प्रतीक थे। वे त्यागी नहीं थे और न धुरन्धर आचार्य । वे सच्चे पुरुषार्थी और वीतराग-विज्ञानदर्शी थे । प्रायः देखा जाता है जो लोग जीवन में अपने पैरों पर खड़े हैं वे आध्यात्मिक दृष्टि से दूसरों पर निर्भर करते हैं और जो लोग अध्यात्मसाधना में लगे हैं उनका उत्तरदायित्व समाज को उठाना पड़ता है। लेकिन पं० टोडरमल दोनों क्षेत्रों में अपने पुरुषार्थ पर विश्वास रखते थे। उन्होंने पर-मतों का ही नहीं, स्वमत का और उसमें व्याप्त रूढ़ियों की कड़ी आलोचना की है। दूसरों के मत की आलोचना करना आसान है परन्तु अपने मत की आलोचना करना तलवार की धार पर चलना है क्योंकि उसमें अपनों के बीच प्रतिष्ठा दाव पर लगानी होती है। मोक्षमार्ग प्रकाशक
उनकी समूची साहित्य साधना में 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' विशिष्ट महत्त्व रखता है। वह अनुभूति और चिन्तनप्रधान ग्रन्थ है। वह
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