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________________ परिवर्तन और जैन धर्म जैन धर्म कितना ही आध्यात्मिक या आत्मवादी क्यों न रहा हो, विशुद्ध निवृत्तिबादी कभी नहीं था। यह उसके अनेकान्तवादी दृष्टिकोण के भी विरुद्ध है । ऐतिहासिक दृष्टिकोण से देखें तो प्रारम्भिक तीर्थकरों के जीवन में प्रवृत्ति और निवृत्ति का सुन्दर समन्वय है । 'तीर्थंकर' शब्द ही प्रवृत्ति का सूचक है । वह प्रवृत्ति प्राध्यात्मिक ही सही, किन्तु पाठवीं सदी या उसके कुछ पूर्व से उसमें भट्टारकवाद, तंत्रवाद, सराग उपासना का बोलबाला था। यद्यपि इसके पूर्व कंदकंदाचार्य विशुद्ध अध्यात्मवाद का प्रर्वतन कर चुके थे, उसके बाद सत्रहवीं सदी में उक्त विचारधारा को शुद्धाम्नाय के नाम से प्रसिद्ध कवि बनारसीदासजी ने आगे बढ़ाया । उनके साहित्य को देखने से पता चलता है कि उस समय जैन साधकों में अहं और शिथिलाचार चरम सीमा पर था । सारी साधना अनुभूति की प्रांतरिक पीड़ा से मुक्त थी। उनके द्वारा स्थापित मत को तरहपथ कहा गया है। कुछ लोग इसे अनादिनिधन मानते हैं। संभवत: यहाँ पर अनादिनिधन से अभिप्राय मूल दृष्टिकोण से है । वीतरागता जैन आचार और विचार प्रक्रिया समय की छांव में अपना रंग-रूप बदलती रही है । उसके जीवित रहने के लिये यह जरूरी था। जैन दर्शन के अनुसार सत् की परिभाषा है “उत्पादव्ययधोव्ययुक्त सत्'। उसके अनुसार यदि पदार्थ अपना अस्तित्व रखता है तो उसमें एक साथ कुछ न कुछ नया जुड़ता है और कुछ न कुछ पुराना टूटता है, फिर भी वह बना रहता है, यही उसकी नित्यता है। यह सोचना गलत है कि जैन विचारधारा भौतिक प्राधार के बिना खड़ी नहीं रह सकती। बीतरागता एक दृष्टिकोण है संसार को देखने का न कि अनुभूतिशून्य प्राचार-तंत्र । वीतरागता का अर्थ दिगम्बरत्व नहीं है । वह तो उसे पाने की एक प्राचार प्रक्रिया है जो पूर्ण वीतरागता के लिए जरूरी है, पर वह अपने आप में वीतरागता नहीं है। वीतरागता प्रात्मा का धर्म है, नग्नता शरीर का। वह साधन है, साध्य है वीतरागता। - ..
SR No.090341
Book TitlePandita Todarmal Vyaktitva aur Krititva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages395
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Story
File Size7 MB
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