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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व का विवेक, दैब और पुरुषार्थ, जीवन और मरण, पुण्य-पाप, शत्रुमित्र की पहिचान, दुर्बुद्धि और सुबुद्धि में अन्तर, तृष्णा की स्थिति, कुटुम्बीजनों का स्वार्थीपन, संसार को नश्वरता, धनादि की निरर्थकता, जीवन की क्षणभंगरता. मनष्य पर्याय की दूर्लभता, लक्ष्मी की चंचलता, स्श्रीराम की निन्दा, सत्संगति की महिमा, ज्ञानाराधना की महत्ता, मन की ममता व उसका नियंत्रण, कषाय विजय की आवश्यकता, प्रात्मा और उसकी कर्मबद्ध अवस्था, मोह की महिमा, कामी की दुरवस्था, विषय-सेवन की निरर्थकता, सच्चे तपस्वी का स्वरूप, साधुओं की असाधुता, सत्साधु की प्रशंसा और असत्साधु की गहीं, याचकनिन्दा, अयाचक प्रशंसा, बहिरात्मा, अन्तरात्मा, परमात्मा तथा प्रवृत्ति और निवृत्ति का स्वरूप आदि विषयों का वैराग्य रसोत्पादक तर्कसंगत आध्यात्मिक विवेचन प्रस्तुत किया गया है।
अन्त में प्रात्मानुशासन का फल बताते हुए ग्रंथ समाप्त हुआ है ।
आत्मानुशासन भाषाटीका विवेचनात्मक गद्यशैली में लिखी गई है। भाषा सरल व सुबोध है। अावश्यक विस्तार कहीं नहीं है। संक्षेप में अपनी बात कह कर टीकाकार आगे बढ़ते चले गए हैं । आगे बढ़ने की धुन में प्रभाचन्द्र की संस्कृत टीका के ममान विषय अस्पष्ट कहीं भी नहीं रहा है। जहाँ श्रावश्यकता समझी गई है, विषय विस्तार से भी स्पष्ट किया गया है । प्रत्येक लोक के पूर्व में उत्थानिका दी गई है। श्लोक के बाद पहले मुल श्लोक का सामान्यार्थ दिया गया है, बाद में भावार्थ लिख कर उसके अभिप्राय को स्पष्ट किया गया है। भावार्थ स्पष्टता के अनुरोध से ही लिखे गए हैं । जहाँ विषय को स्पष्ट देखा वहाँ भावार्थ नहीं लिखा है। सामान्यार्थ लिख कर ही आगे बढ़ गए हैं। उदाहरण के लिए प्रलोक नं० १,१३,७६,८० एवं ८७ देखे जा सकते हैं । यावश्यकतानुसार अन्य ग्रंथों के उदाहरण देकर भी विषय को स्पष्ट किया गया है । एलोक नं० १११ एवं १४१ में विषय की पुष्टि के लिए 'उक्त च' लिख कर ग्रंथान्तरों के उद्धरमा दिये गए हैं।