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रचमानों का परिचयारमक अनुशीलन पुरुषार्थसिद्धयुपाय भाषाटीका
_ 'पुरुषार्थसिद्ध्युपाय' आचार्य अमृतचंद्रा (११वीं शती) का अत्यन्त लोकप्रिय ग्राध्यात्मिक ग्रंथ है, जिसमें श्रावकों के प्राचार का वर्णन है । यह ग्रंथ समस्त जैन परीक्षा बोर्डों के पाठ्यक्रम में निर्धारित है और नियमित चलने वाले सभी जैन बिद्यालयों में पढाया जाता है । इस ग्रंथ पर पंडित टोडरमल ने सरल, सुबोध भाषा में भाषाटीका लिखी है जो कि उनके असमय में कालकलवित हो जाने से पूर्ण नहीं हो सकी । उसे पं० दौलतराम कासलीवाल ने पूर्ण किया । यह दीका
प्राचार्य अमृतचंद्र परम प्राध्यात्मिक संत, रससिद्ध कवि एवं सफस टीकाकार थे । उन्होंने कुंदकुंदाचार्य के प्राकृत भाषा में लिखे गए समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय नामक महान् ग्रन्धों पर. संस्कृत भाषा में अध्यात्मरस से योनप्रोत बेजोड़ टीकाएँ लिखी हैं। समयसार टीका (प्रात्मख्याति) के बीच-बीच में लिखे २७८ श्लोक जिन्हें 'समयसार कलमा' कहा जाता है, अपने ग्राम में अभूतपूर्व है। उन्होंने प्राचार्य गृपिच्छ उमास्वामी के महाशास्त्र तत्त्वार्थसुत्र (मोक्षशास्त्र) को आधार बना कर 'तत्त्वार्थसार' नामक एक ग्रंथ भी लिखा है। दिगम्बर प्राचार्य-परम्परा में
उन्हें महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है । २ अमृतचंद्र मुनीन्द्रकृत, ग्रंथ थावकाचार ।
नध्यातम रूपी महा, प्राछिन्द जु सार ॥१।। पुरुषारय की सिद्धि को, जामैं परम उपाय । जाहि सुनत भव भ्रम भिटे, प्रातमतत्त्व लक्षाय ||२१॥ भाषाटोका ता उपरि, कीनी टोडरमल्ल ।। मुनिवत वृत्ति ताकी रही, वाके माहि अनल्ल ||३|| बे तो परभव कं गये, जयपुर मगर मझारि । सब साधर्मिन तव कियो, मन में यहै विवारि ||४|| ग्रंथ महा उपदेशमय, परम ध्यान को मूल । टीका पूरन होय तो, मिटै जीव की भूल ||५||