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साहित्यिक परिस्थिति
आलोच्यकाल की साहित्यिक गतिविधियाँ संतोषजनक नहीं थीं। लड़भिड़ कर मुगल सेना और हिन्दू राजे अपनी शक्ति स्लो चुके थे । विशाल राष्ट्रीय कल्पना या उच्च नैतिक पादश की प्रास्था उनमें नहीं थी। यही स्थिति आध्यात्मिक चिंतन और साधना के क्षेत्र में थी। भक्तिकाल के बाद रीतियुग (शुगारकाल) की मूल चेतना शृगार थी। अधिकांश रीति-कावियों के पालम्बन राधा-कृष्ण थे । विशाल भारतीय समाज का ही एक अङ्ग होने से जैन समाज भी इन प्रभावों से अछूता नहीं था । वीतरागता के प्रति प्रतिबद्ध होने के कारण यद्यपि उसकी साधना में शृगार चेतना तो प्रविष्ट नहीं हो सकी तथापि भट्टारकबाद की स्थापना उसमें हो ही गई। शूद्ध शृगार काव्य की रचना के विचार से जैन साहित्य नगण्य-सा है। यद्यपि ऐसे कवि मिलते हैं, जिन्होंने विशुद्ध सािित्यक दृष्टिकोण से शृगार रचनाएँ लिखी हैं तथापि बाद में वे अपनी लौकिक शृगारपरक रचनाओं को नष्ट कर आध्यात्मिक काव्य साधना करने लगे । जैन कवियों ने शृगारमूलक प्रवृत्तियों को कड़ी आलोचना की। उनका कहना था कि क्या सरस्वती के वरदान का यही फल है ? क्या इसका ही नाम काव्य है ? मांस की ग्रंथि कूच कंचन-कलश कहें,
कहें मुख चन्द्र जो सलेषमा को घर है। हाड़ के दशन प्रांहि हीरा मोती कहें तांहि,
मांस के अधर ओंठ कहें विम्बफरु है ।। हाड़ थेभ भूजा कहें कल नाल काम जुधा,
हाड़ ही की थंभा जंधा कहे रंभातरु है । यों ही झूठी जुगति वनावै प्रो कहावें कवि,
एते पै कहैं हमें शारदा का वा है ।।
१ अ. क०, ३०-३१ २ वीरवाणी : कवि बनारसीदास विशेषांक, ४८