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साहित्यिक परिस्थिति
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जब रीतिकाल में वृद्ध कवि भी अपने सफेद बालों को देख कर खेद व्यक्त कर रहे थे' और 'रसिकप्रिया' जैसे श्रृंगार काव्य का निर्माण कर रहे थे तब जैन कवि उन्हें संबोधित कर रहे थे :
बड़ी नीति लघु नीति करत है, बाय सरत बदबोय भरी । फोड़ा आदि फुनगुन
शोणित हाड़ मांस मय मूरत, ता पर रीझत घरी-घरी । ऐसी नारि निरख कर केशव, 'रसिकप्रिया' तुम कहा करी ॥
नारी और 'रसिकप्रिया' विषयक ऐसे ही सशक्त कथन दादूपंथी सुन्दरदासजी ने भी किए हैं। विष्णोई कवि परमानन्ददासजी रियाल भी काव्य में, चाहे वह किसी भी प्रकार का हो, 'हरि नांव ' चर्चा ही मुख्य मानते हैं, शेष कथन तो केवल 'इन्द्रीरत ग्यान' है ' ।
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" "केशव" केशन अस करी जस अरिह न कराहि ।
चन्द्रवदन मृगलोचनी, बाबा कहि कहि जाहि ।। ब्रह्मविलास, १८४
(क) रसिक प्रिया रस मंजरी, और सिंगाहि जाति । चतुराई कर बहुत विधि, विषै बनाई अनि ॥ दिषे बनाई अनि लगत विषयनि को प्यारी । जागे मदन प्रचण्ड, सराहें नखशिख नारी ।। ज्यौं रोगी मिष्ठान खाई, रोगह बिस्तारं । सुन्दर यह गति होई, जुती रसिकप्रिया धारें ॥ - सुन्दर ग्रन्थावली द्वितीय खण्ड ३३९
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(ख) सुन्दर ग्रन्थावली : द्वितीय खण्ड, ४३७-४४० प्रथमखण्ड भूमिका, ८-१०६ कवत छंद सिरळोक । सोभा तोन्मों लोक || कथ इन्द्रीरत ग्यान । परिबी निरफळ जाम्य ।
* हरिजस कथा साखी कहो, परमानन्द हरि नांव को निजपद की नाराति करें,
जैसे वो नीर विषय
- जाम्भोजी विष्णोई सम्प्रदाय और साहित्य
( जम्भवाणी के पाठ संपादन सहित ) : दूसरा भाग, ६५६ व ८६७