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___डॉ० कस्तूरचन्दजो कासलीवाल, श्री अनूप धन्दी न्यावतीर्थ, श्री भंवरलालजी न्यायतीर्थ, पंडित हीरालालजी सिद्धांतशास्त्री, वैद्य गम्भीरचन्दजी जैन, ब्र. गुलाबचन्दजी आदि से भी यावश्यक साहित्य-सामग्री प्राप्त करने में तथा श्री हेमचंदजी जैन का पाण्डुलिपि तैयार करने में सराहनीय सहयोग रहा है । उन सबके प्रति मैं आभार व्यक्त करता हूँ।
व्यवस्थापकगण - राजस्थान विश्वविद्यालय पुस्तकालय जयपुर, श्री सन्मति पुस्तकालय जयपुर, श्री दि० जैन बड़ा मन्दिर तेरापंथियान जयपुर, दि० जैन मंदिर दीवान भदीचंदजी जयपुर, दि० जैन मंदिर प्रादर्श नगर जयपुर, लाल भवन जयपुर, महावीर भवन जयपुर, दि० जैन मंदिर बड़ा धड़ा अजमेर, श्री सीमंधर जिनालय बम्बई, ऐ०प० सरस्वती भवन बम्बई-त्र्यावर, दि० जैन मंदिर अलीगंज, श्री दि० जन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट सोनगढ़, वीर वाचनालय इन्दौर, पुस्तकालय शासकीय वाणिज्य एवं कला महाविद्यालय इन्दौर, दि. जैन कांच का मंदिर इन्दौर, श्री नेमिनाथ दि. जैन मंदिर रामाशाह इन्दौर, दि० जैन मारवाड़ी मंदिर शक्कर बाजार इन्दौर आदि से आवश्यक साहित्य-सामग्री प्राप्त करने में सुविधा रही है, उन सब के प्रति मै आभार व्यक्त करता है । अंत में ज्ञात-अज्ञात जिन महानुभावों से भावात्मक एवं सक्रिय सहयोग मुझे प्राप्त हुआ है, उन सब के प्रति मैं प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से प्राभार प्रदशित करता है।
सब कुछ मिला कर प्रस्तुत कृति जैसी भी बन सकी है, आपके हाथ में है । यदि इससे हिन्दी साहित्य जगत व मुमुक्षु बन्धुओं को थोड़ा भी लाभ मिला, तो मैं अपमा श्रम सार्थक समभूगा। यद्यपि इसमें बहुत कुछ कमियां हो सकती हैं तथापि मैंने यह गुरुतर भार पूज्य पंडित टोडरमलजी के निम्नलिखित वाक्य को लक्ष्य में रखकर ही उठाया है :
संशयादि होते किछु, जो न कीजिए ग्रंथ । तो छद्मस्थान के मिट, ग्रंथ करन को पंथ ।।
टोडरमल स्मारक भवन ए-४, बापू नगर, जयपुर
- हुकमचन्द भारिल्ल
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