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गच शरी
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समझ सके । इस बात का उल्लेख भी उन्होंने जहां आवश्यकता समझी, किया है । इसी बात को लक्ष्य में रख कर उन्होंने 'सम्यग्ज्ञान चन्द्रिका' में संदृष्टियां यथास्थान न देकर अन्त में उनका एक पृथक अधिकार रखा है । इसके सम्बन्ध में उन्होंने लिखा है :
"जो यह टीका मंदबुद्धीनि के ज्ञान होने के अथि करिए सौ या त्रि बीचि-बीचि संदृष्टि लिखने ते तिनकों कठिनता भासै तब अभ्यास से विमुख होई । तातै जिनको अर्थ मात्र ही प्रयोजन होई सौ अर्थ ही कर अभ्यास करौ अर जिनको संदृष्टिनिकौं भी जाननी होई ते संदृष्टि अधिकार विर्षे तिनका भी अभ्यास करी' ।" ।
बीच-बीच में लोक-प्रचलित एवं शास्त्रों में समागत् लोकोक्तियों का यथास्थान प्रयोग किया गया है। इससे विषय की स्पष्टता के साथ-साथ शैली में भी गतिशीलता पाई है। कुछ इस प्रकार हैं :
(१) मेरी माँ और नाँझ (२) जल का विलोबना (३) देह विर्षे देव है, देहुरा वि नाहीं (४) स्वभाव विर्षे तर्क नाहीं (५) बालक तोतला बोले तो बड़े तो न बोलें (६) झोल दिये बिना खोटा द्रव्य चाले नाही (७) विष ते जीवना कहे हैं, (८) कोड़ी के करण और कुंजर के मरण (६) टोटोड़ी की सी नाईं उबारै है (१०) हस्त चुगल का सा नाई (११) मिश्री को अमृत जान भखे तो अमृत का गृण तो न होय (१२) काकतालीय न्यायबत्
. स. चं०पी०,५०