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दिगम्बर खेळाड
गम्बर (जैक एए क्षमाल ८८५
अप्यं विषय और बार्शनिक विचार
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तहाँ तिस प्रतिज्ञाकरि परिणाम दुःखी हो हैं । जैसे बहुत उपवास करि बैठे, पीछे पीड़ा तैं दुखी हुवा रोगीवत् काल गमात्रै, धर्मसाधन न करें। सो पहले ही सती जानिए कितनी ही प्रतिज्ञा क्यों न लीजिए । दुःखी होने में प्रार्तध्यान होय, ताका फल भला कैसे लागेगा | अथवा उस प्रतिज्ञा का दुःख न सह्या जाय तब ताकी एवज विषय पोषने को अन्य उपाय करें | जैसे तृषा लागे तब पानी तो न पीव अर अन्य शीतल उपचार अनेक प्रकार करें। वा वृत तो छोड़े पर अन्य स्निग्ध वस्तुकौं उपायकरि भखं । ऐसें ही अन्य जानना । सो परीषह न सही जाय थी, विषयवासना न छूटे थी, तो ऐसी प्रतिज्ञा काहे की करी । सुगम विषय छोड़ि विषम विषयनिका उपाय करना पढ़ें, ऐसा कार्य काहे कौं कीजिए । यहाँ तो उलटा राग भाव तीव्र हो है ' ।
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काला 20% मदद
विवेकपूर्वक प्राचरण को उनकी दृष्टि में कोई स्थान प्राप्त नहीं है | अन्यायपूर्वक धन कमा कर दान देने वालों एवं सब कुछ त्याग कर भिक्षावृत्ति करने वालों को उन्होंने खूब फटकारा है" ।
हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील श्रीर परिग्रह इन पाँचों पापों के त्याग को भी चारित्र कहा गया है । यह चारित्र दो प्रकार का होता है । सकल चारित्र और त्रिकल चारित्र | सकल चारित्र पाँचों पापों के पूर्ण त्याग रूप होता है और यह मुनियों के होता है । विकल चारित्र पाँचों पापों के एकदेश त्याग रूप होता है और वह गृहस्थों के होता है । हिंसादि पाँचों पापों के पूर्ण त्याग को महाव्रत कहते हैं और एक देश त्याग को सुव्रत । ये अणुव्रत और महाव्रत सब शुभ भाव रूप हैं, ग्रत इन्हें व्यवहार से चारित्र कहा जाता है । वास्तविक चारित्र तो वीतराग भाव रूप ही होता है। इस संदर्भ में पंडित टोडरमल ने लिखा है। :
" मो० मा० प्र०, ३५० - ३५१
नही ३५४
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रत्नकरण्ड श्रावकाचार, अ० ३ श्लोक ४६
* वही, प्र० ३ श्लोक ५०
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