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उपसंहार : उपलब्धियां और मूल्यांकन
३१७ टीकाकार होते हुए भी पंडित जी ने अपनी गद्य शैली का निर्माण स्वयं किया। उनकी शैली दृष्टान्तयुक्त, प्रश्नोत्तरमयी तथा सुगम है। वे ऐसी शैली को अपनाते हैं जो न तो एकदम शास्त्रीय है और न आध्यात्मिक सिद्धियों और चमत्कारों से बोझिल । उनकी इस शैली का सर्वोत्तम निर्वाह मोक्षमार्ग प्रकाशक में है । उस समय तक हिन्दी में प्रश्नोत्तर रूप में मुख्यतः निम्नलिखित गद्य शैलियाँ प्रचलित थीं :
(१) गुरु-शिष्य अथवा दो प्रसिद्ध व्यक्तियों के प्रश्नोत्तर या संवाद के रूप में। यह शैली नाथपंथी और कबीरपंथी साहित्य में पाई जाती है । इसमें पंथ-विशेष के प्रतिष्ठापक या गुरु-विशेष के मुल मंतव्यों का स्पष्टीकरण मुख्यतः रहता है ।।
(२) विभिन्न प्रकार के लोगों द्वारा विभिन्न समय और स्थिति में पूछे गए अनेकविध प्रश्नों के उत्तर के रूप में सम्प्रदाय-प्रवर्तक या गुरु-विशेष द्वारा वारणी कथन । इस शैली का प्रयोग जम्भवाणी में हुआ है ।
(३) किसी मत, विचार, कथन, तात्त्विक-रहस्य, चितन-बिन्दु विशेष की व्याख्या हेतु लेखक द्वारा स्वयं ही विविध प्रश्न उठाना और अनेक कोणों से स्वयं ही उनका सम्यक, तकसम्मत एवं बोधगम्य रूप में उत्तर देना । इस शैली के एकछत्र सम्राट पंडित टोडरमल हैं। कहने की आवश्यता नहीं कि इसके लिए अनेक शास्त्रों के मंथन और गहन चितन की आवश्यकता थी, क्योंकि उस समय तक इस प्रकार के परिष्कृत प्रयोग प्रचलित नहीं थे । ऐसी स्थिति में गद्य को आध्यामिक चिंतन का माध्यम बनाना बहुत ही सूझ-बूझ और श्रम का कार्य था। उनकी शैली में उनके नितक का चरित्र और तर्कका स्वभाव स्पष्ट झलकता है। एक आध्यात्मिक लेखक होते हुए भी उनकी गद्य शैली में व्यक्तित्व का प्रक्षेप उनकी ही मालिक विशेषता है ।
दृष्टान्त उनकी शैली में मरिण-कांचन योग से चमकते हैं। दृष्टान्तों के प्रयोग में पंडितजी का सुक्ष्म वस्तु-निरीक्षण प्रतिबिंबित है। कभी-कभी तो वे एक ही दृष्टान्त को वहुत आगे तक बढ़ा कर अपना प्रतिपाद्य स्पष्ट करते हैं, और कभी एक ही वात के लिए अनेक दष्टान्तों का प्रयोग करते हैं।