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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व जैन दर्शन में छः द्रव्यों के समुदाय को विश्व कहते हैं और वे छ: द्रव्य है - जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । जीब को छोड़ कर बाकी पाँच द्रव्य अजीव हैं । इस तरह सारा जगत् चिद्धिदात्मक है। जीव द्रव्य अनन्त हैं और पुद्गल द्रव्य उनसे भी अनन्तगुरणे हैं। धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य एक-एक हैं, काल द्रव्य असंख्यात हैं । ज्ञानदर्शनस्वभावी आत्मा को जीव द्रव्य कहते हैं । जिसमें स्पर्श, रस, गंध और वर्ग पाया जाय वह पुद्गल है। जितना भी इन्द्रिय के माध्यम से दृश्यमान जगत् है, वह सब पुद्गल ही है। स्वयं चलते हए जीव और पुद्गलों को गमन में जो सहकारी (निमित्त) कारण है, वह धर्म द्रव्य है और गतिपूर्वक स्थिति करने वाले जीव और पुद्गलों की स्थिति में जो सहकारी (निमित्त) कारण है, वह अधर्म द्रव्य है। समस्त द्रव्यों के अवगाहन में निमित्त प्राकाश द्रव्य और परिवर्तन में निमित्त काल द्रव्य है।
जीव व पुद्गल (कर्म, शरीर) अनादिकाल से एकमेक हो रहे हैं। ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्म (पुद्गल कर्म) के उदय में जीव के मोहराग-द्वेष (भाव कर्म) होते हैं और मोह-राग-द्वेष होने पर प्रात्मा से द्रव्य कमों का सम्बन्ध होता है, उसके फलस्वरूप देहादि की स्थिति बनती रहती है और आत्मा दुःखी हना करता है। जीव की इस दुःखावस्था का नाम ही संसार है और दुःखों से मुक्त हो जाने का नाम है मोक्ष । दुःखों से छूटने के उपाय को कहते हैं मोक्षमार्ग।
प्रत्येक संसारी जीव दुःखी है और दुःखों से छूटना भी चाहता है, पर उसे सच्चा मोक्षमार्ग ज्ञात न होने से वह छूट नहीं पाता है। उक्त मोक्षमार्ग बतलाने का प्रयत्न ही समस्त जैनागम में किया गया है।
१ पंचास्तिकाय, गाथा १२४ २ तत्त्वार्थसूत्र, प्र०५ सू०६ ३ व्यसंग्रह, गाथा २२ ४ तत्त्वार्थसूत्र, प० २ सू० ५-६ ५ वही, प्र०५ सू० २३ ' (फ) द्रश्यसंग्रह, गाथा १७ से २१
(ख) प्रवचनसार, गाथा १३३-३४