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व्यक्तित्व
७३ (जड़) की परिणति है । यह शास्त्र तो एक पुद्गल का पिण्ड मात्र है, फिर भी इसमें श्रुतज्ञान निबद्ध है ।
वे विनम्र थे, पर दीन नहीं । स्वाभिमान उनमें कूट-कूट कर भरा था। विद्वानों का धनवानों के सामने झुकना उन्हें कदापि स्वीकार न था । 'सम्यग्यज्ञानचंद्रिका की पीठिका में धन के पक्षपाती को लक्ष्य करके वे कहते हैं :
"तुमने कहा कि धनवानों के निकट पंडित पाकर रहते हैं सो लोभी पंडित हो और अविवेकी धनवान हो वहाँ ऐसा होता है । शास्त्राभ्यास वालों की तो इन्द्रादिक भी सेवा करते हैं । यहाँ भी बड़े-बड़े महन्त पुरुष दास हति देख जाते है, इसलिए शास्त्राभ्यास वालों से धनवानों को महन्त म जान ।'
वे सरल स्वभाव के साधू पुरुष थे । पंडित दौलतराम कासलीवाल ने उनको मुनिवरवत वृत्ति लिखा है । वे लोकेषणा से दूर रहनेवाले लोकोत्तर महापुरुष थे। उन्होंने साहित्य का निर्माण लोक-बड़ाई और ग्राथिक लाभ के लिए नहीं किया था। यह कार्य उनकी परोपकार वृत्ति का सहज परिणाम था। मोक्षमार्ग प्रकाशक के प्रारंभ में वे स्वयं लिखते हैं :- "बहुरि इहाँ जो में यहु ग्रन्थ बनाऊं है सो कषायनि तें अपना मान बधाबनेकौं वा लोभ साधने कों वा यश होने कौं वा अपनो पद्धति राखने की नाहीं बनाऊँ हूँ ।"...." इस समय विर्षे मंदज्ञानवान जीव वहत देखिये हैं तिनिका भला होने के प्रथि धर्मबुद्धि तैं यह भाषामय ग्रन्थ वनाऊँ है।"
__ अपने विषय के अधिकारी एवं अद्वितीय विद्वान् और सबके द्वारा सम्मानित होने पर भी 'सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका' जैसी महान टीका , "ज्ञान राग तो मेरी मिल्यो, लिखनौ करनी तनु को मिल्यो ।
कामज ममि अक्षर आकार, लिखिया अर्थ प्रकाशन हार ।। ऐसौ पुस्तक भयो महान, जातें जानें अर्थ सुजान । यद्यपि गहु पुगल को खंद, है तथापि श्रुतज्ञान निबंध ।।"
-सं० चं. प्र. २ "मुनियत वृत्ति बाकी रही, ताक माहि अचल्ल ।" -पु. भा. टी०प्र० 3 मो० भा० प्र०, २६