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________________ पंडित टोडरमल : यक्तित्व और कतरण उत्पत्ति होती है। ये रागादिक भाव मेरे स्वभाव भाव नहीं हैं, ये तो . प्रौपाधिक भाव है, यदि ये नष्ट हो जावें तो मैं पूर्ण परमात्मा ही हूँ' । प्रतिभा के धनी और प्रात्मसाधना-सम्पन्न होने पर भी उन्हें अभिमान छू भी नहीं गया था। अपनी रचनामों के कर्तृत्व के संबंध में वे लिखते हैं : बोलना, लिखना तो जड़ (पुद्गल) की क्रिया है । पाँचों इन्द्रियाँ और मन भी पुद्गल के ही बने हुए हैं। इनसे हमारा कोई सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि मैं तो चेतन द्रव्य आत्मा हूँ और ये जड़ पुद्गल हैं, अतः मैं इनका कर्ता कैसे हो सकता हूँ ? बोलने के भावरूप राग और बोलने में निमित्त की अपेक्षा से कारण-कार्य सम्बन्ध है, अतः जगत को इनकी भिन्नता भासित नहीं होती है। इनमें भिन्नता तो विवेक की प्रास्त्र से ही दिखाई देती है और सारा जगत विवेक के बिना अंधा हो रहा है। वे आगे लिखते हैं . . लत टीका ग्रन्थों का मात्र मैं ही कर्ता नहीं है, क्योंकि इनकी रचना तो कागजरूप पुद्गल-स्कन्धों पर स्याही के परमाणुओं के बिखरने से हुई है। मैंने तो मात्र इसे जाना है और मुझे उक्त ग्रन्थों की टीका करने का राग भी हुआ है। अतः इसकी रचना में ज्ञानांश और रागांश तो मेरा है, बाकी सब पुगल + मैं प्रातम अरू पुद्गल खंद्य, मिलक भयों परस्पर बंघ । सो असमान जाति पाप, उपज्यो मानुष नाम कहाय ।।३८॥ तिस पर्याय वि जो कोय, देखन-जानन हारो सोय । मैं हूं जीव-द्रव्य गुण भूप, एक अनादि अनन्त अरूप ।।४२।। कर्म उदय को कारण पाय, रागादिक हो हैं दुःखदाय । ते मेरे प्रौपाधिक भान, इनिकों विनर्स मैं शिवराय ।।४३।। २ वचनादिक लिखनादिवा क्रिया, वर्गादिक अरू इन्द्रिय हिया। मे सब हैं पुद्गल के खेल, इनमें नाहि हमारो मेल ||४४।। -स० च०प्र० । रागादिक वचनादिक घना, इनके कारण कारिज' पना। तातै भिन्न न देख्मो कोय, बिनु विवेक जग अंधा होय ॥४५॥ -स.१० प्र०
SR No.090341
Book TitlePandita Todarmal Vyaktitva aur Krititva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages395
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Story
File Size7 MB
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