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पूर्व-धार्मिक व सामाजिक विचारधाराएँ
और परिस्थितियाँ धर्म का मूल उद्गम चाहे जो हो परन्तु उसका लौकिक रूप सम्प्रदाय या उपसम्प्रदायों के रूप में ही विभक्त है। विश्व और. विशेषत: भारत में धर्म और दर्शन दोनों एक दूसरे से अनुस्यूत हैं । दर्शन के द्वारा बिवेचित तत्त्व का याचरण भी धर्म के अंतर्गत या जाता है । धर्म के मनुष्य-सापेक्ष्य होने से देशकाल का प्रभाव उस पर भी पड़ता है । जैनधर्म भी इससे अछूता नहीं है।
प्रारंभ में दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदाय के साधु वनवासी और मग्न हा करते थे। कालान्तर में उनमें से कतिपय साधुओं ने मठों-मंदिरों में रहना एवं वस्त्रादि का उपयोग करना प्रारंभ कर दिया। डॉ० हीरालाल जैन लिखते हैं
. "जैन मुनि आदितः वर्षा ऋतु के चातुर्मास को छोड़ अन्य कान में एक स्थान पर परिमित दिनों से अधिक नहीं ठहरते थे और वे सदा विहार किया करते थे। वे नगर में केवल ग्राहार व धर्मोपदेश के निमित्त ही पाते थे और शेषकाल वन-उपवन में ही रहते थे किन्तु धीरे-धीरे पांचवी-छठी शताब्दी के पश्चात् कुछ साधु चैत्यालयों में स्थायी रूप से निवास करने लगे । इससे श्वेताम्बर समाज में बनबासी और चैत्यवासी सम्प्रदाय उत्पन्न हो गये । दिगम्बर सम्प्रदाय में भी प्रायः उसी काल में कुछ साधु चैत्यों में रहने लगे।" ' ज. सा. इति०, ४५६ २ भा० सं० ० यो, ४५