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पंडिस टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व कारक और विभक्तियाँ
हिन्दी की साकारण सी दुपित से भीगा कर, वाकाथों में कारक और विभक्ति के सम्बन्ध में बहुत भ्रम है। कारक और विभक्ति दो अलग-अलग चीजे हैं। कारकों का सम्बन्ध क्रिया से है । वाक्य में प्रयुक्त बिभिन्न पदों का क्रिया से जो सम्बन्ध है, उसे कारक कहते हैं। इन प्रयुक्त पदों का आपसी सम्बन्ध भी क्रिया के माध्यम से होता है, उनका क्रिया से निरपेक्ष स्वतंत्र संबंध नहीं होता। इस प्रकार वाक्य रचना की प्रक्रिया में कारक एक पद के दूसरे पद से सम्बन्ध-तत्व का बोधक है अर्थात् वह यह बताता है कि बाक्य में एक पद का दूसरे पद से क्या सम्बन्ध है । भाषा में इस सम्बन्ध को बताने वाली व्यवस्था विभक्ति कहलाती है अर्थात् जिन प्रत्ययों या शब्दों से इस सम्बन्ध की पहिचान होती है उसे विभक्ति कहते हैं । इस प्रकार विभक्ति भाषा सम्बन्धी व्यवस्था है । पाणिनी ने सात विभक्तियाँ और छह कारक माने हैं, इसमें एक-एक कारक के लिए एक-एक विभक्ति सुनिश्चित कर दी गई है।
कर्ता -प्रथमा कर्म -द्वितीया करगण - तृतीया सम्प्रदान - चतुर्थी अपादान - पंचमी
अधिकरण – सप्तमी षष्ठी के सम्बन्ध में उनका स्पष्ट निर्देश है 'शेषे षष्ठी' 1 सम्बन्ध को बताने के अतिरिक्त दूसरे कारकों को बनाने के लिए भी षष्ठी का प्रयोग किया जा सकता है। 'शेषे षष्ठी' का अभिप्राय यही है, परन्तु हिन्दी के व्याकरणों में सम्बन्ध को कारक मान लिया गया और उसे षष्ठी विभक्ति सुनिश्चित कर दी गई। इसी प्रकार संबोधन को भी एक विभक्ति दी जाती है जो कि सरासर गलत है। जहाँ तक कारकों के ऐतिहासिक विकास का सम्बन्ध है, कारकों की