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________________ उपसंहार : उपलब्धियाँ और मूल्यांकन भारतीय परम्परा में धर्म और दर्शन एक दूसरे से अन्तः सम्बद्ध हैं । उनकी यह अन्तः सम्बद्धता मानव जीवन के अन्तिम लक्ष्य और नैतिक आचरण से सम्बन्ध रखती है। समय के प्रवाह में लौकिक मूल्यों और आध्यात्मिक मूल्यों में उतार-चढ़ाव के साथ अन्तविरोध की स्थितियां श्रीविभित होती रहती हैं। कभी सूक्ष्म प्राध्यात्मिक साधनाएँ और विचारधाराएँ वाह्य आडम्बर और धर्म की मिथ्या अभिव्यक्तियों से श्राच्छन्न हो जाती हैं और कभी आध्यात्मिकता की प्रतिवादी शक्तियाँ मनुष्य के जीवन को अकर्मण्य बना कर उसकी समूची ऐहिक प्रगति के पथ को अवरुद्ध कर देती हैं। जैन धर्म भी इस प्रक्रिया का अपवाद नहीं । ईसा की छठी शती के आसपास जिन परम्परा के श्वेताम्बर सम्प्रदाय में बनवासी व चैत्यवासी भेद हो चुके थे तथा कुछ दिगम्बर साधु भी त्यों में रहने लगे थे' । प्रसिद्ध श्वेताम्बराचार्य हरिभद्र ने मठवासी साधुयों की प्रवृत्ति की कड़ी आलोचना की है । दिगम्बरों में भी चैत्यवास की प्रवृत्ति द्राविड़संघ की स्थापना के साथ प्रारंभ होती है, जो बाद में मूलसंघ में भी श्रा जाती है। पहिले मठवासी साधु नग्न ही रहते थे, बाद में उनमें शिथिलाचार बढ़ा और यहीं से भट्टारकवाद की स्थापना हुई । मुस्लिम राज्यसत्ता ने भी इस प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया। आलोच्यकाल तक आते-आते भट्टारकवाद देश के विभिन्न भागों में फैल कर अपनी जड़ें गहरी और मजबूत बना चुका था । यह युग सभी धर्मों में वाह्य शिथिलाचार एवं साम्प्रदायिक भेद-प्रभेद का युग था । सोलहवीं शती में दिगम्बरों में तारणस्वामी और श्वेताम्बरों में लोकाशाह ने क्रमशः तारणपंथ एवं १ भा० सं० ॐ० यो०, ४५ २० सा० इति०, ४५६
SR No.090341
Book TitlePandita Todarmal Vyaktitva aur Krititva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages395
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Story
File Size7 MB
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