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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व मुरुनामधारी लोगों को लक्ष्य करके वे आगे लिखते हैं :
"जो शीत उगादि सहे न जाते थे, लज्जा न टूट थी, तो पाग, जामा इत्यादि प्रवृत्तिरूप वस्त्रादिक त्याग काहे कों किया ? उनको छोरि ऐसे स्वांग बनावने में कौन धर्म का अंग भया । गृहस्थान कौं ठिगने के अथि ऐसे भेष जाननें । जो गृहस्थ सारिखा अपना स्वांग रान तो गृहस्थ कसे ठिगावै ? पर याकौं उन करि ग्राजीविका वा धनादिक वा मानादिक का प्रयोजन साधना, तानै ऐ स्वांग बना है। जगत भोला, तिस स्वांग को देखि लिंगावै अर धर्म भया माने ।' भक्ति
प्रात्मीय सद्गुरगों में अनुराग को भक्ति कहते हैं। आत्मीय गुणों का चरम विकास पंचपरमेष्ठियों में पाया जाता है। अरहंत, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय और साध, ये पांच पंचपरमेष्ठी कहे जाते हैं । अतः इस के प्रति अनुराग ही भक्ति हुई। पंचपरमेष्ठियों में अरहंत और सिद्ध देव हैं; एवं प्राचार्य, उपाध्याय और माधु गुरुयों में आते हैं। इनके द्वारा निमित जिनागम ही शास्त्र है। अतः प्रकारान्तर से यह भी वाह सकते हैं कि देव-गुरु-शास्त्र के प्रति अनुराग ही भक्ति है । अनुराग राग का ही भेद है, यह वीतरागता का कारण नहीं हो सकता है । वीतरागता शुद्ध भाव रूप है और राग शुभाशुभ भाव रूप । देवगुरु-शास्त्र के प्रति भक्ति शुभ राग है. अतः शुभ भाव रूप है।
जैन दर्शन में भक्ति को मुक्ति का कारण न मान कर पूण्य बंध का कारण माना गया है, क्योंकि वह राग का है. और राग बंध का कारग है, मुक्ति का नहीं । अतः जैन दर्शन में ज्ञानी आत्मा का लक्ष्य भक्ति नहीं है, किन्तु तीन राग से बचने के लिए एवं विषय-भोगों के प्रति होने वाले राग मे बचने के लिए ज्ञानी जन भी भक्ति में लगते हैं। अज्ञानी जन भक्ति को मुक्ति का कारण जानते हैं, अतः उसमें तीव्रता से लगते देखे जाते हैं। १ मो० मा प्र०, २६१ २ पंचास्तिकाय संग्रह, समयव्याख्या टीका, गाथा १३६