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पण्य-विषय और दार्शनिक विचार
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और यदि कदाचित् हो भा जाये तो उसके निराकरण की प्रक्रिया भी स्वतः सक्रिय है । अतः मूल बातों की प्रामाणिकता असंदिग्ध ही है ।
जैन दर्शन में गुरुत्व की कल्पना कलादिक की अपेक्षा से नहीं है किन्तु दर्शन, ज्ञान और चारित्र की अपेक्षा से है। यदि गुरु के स्वरूप को समझने में गलती हुई तो सर्वत्र गलतियों सम्भव हैं, क्योंकि ज्ञान का मूल तो गुरु ही है । अतः पंडित टोडरमल ने इसके सम्बन्ध में बहुत सावधान किया है। गुमता के अभाव में अपने को गुरु मानने वालों के सम्बन्ध में विस्तार से विचार किया है । कुल की अपेक्षा अपने को गुरु मानने वालों को लक्ष्य में करके वे कहते हैं :--
"जो उच्च कुल विर्षे उपजि हीन पाचरन कर तो वाकौं उच्च कैसे मानिए 1 जो कुल विषं उपजनेही ते उच्चपना र है, तो मांसभक्षणादि किए भी त्राको उच्च ही मानौं सो वन नाहीं।....."ताते धर्म पद्धति विषं कुल अपेक्षा महतपना नाहीं सम्भव है ।"
इसी प्रकार पट्ट पर बैठने, ऊँचा नाम रखने, विभिन्न प्रकार से भेष बनाने का नाम भी गुरुपना नहीं है। इनके कारग्गों का विश्लेषगा करते हुए पंडित टोडरमल लिखते हैं :___ "शास्त्रनि विषं तो मार्ग कठिन निरूपण किया सो तो सधै नाहीं पर अपना ऊँचा नाम धराएं बिना लोक मानें नाहीं, इस अभिप्राय तें यति, मुनि, प्राचार्य, उपाध्याय, साधु, भट्टारक, संन्यासी, योगी, तपस्वी,नग्न इत्यादि नाम तो ऊंचा धरावे हैं पर इनिका आचारनिकों नाहीं साधि सके हैं तातें इच्छानसारि नाना भेष बनावें हैं । बहुरि केई अपनी इच्छानुसारि ही तौ नवीन नाम धरावे हैं अर इच्छानुसारि ही भेष बनावै हैं । ऐसे अनेक भेष धारने ने गुरुपनौं मानै हैं, सो यहु मिथ्या है। ' मो. मा० प्र०, १९-२० २ वहीं, २५८ 3 वहीं, २५८-५९ । वहीं, २६१-६२