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पंडित टोरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व सवस्त्रमुक्ति, केवली-कवलाहार-निहार, ढूंढकमत, मूर्तिपूजा, मुंहपत्ति ग्रादि विषयों पर युक्तिपूर्वक विचार किया गया है ।
छठे अधिकार में भी गृहीत मिथ्यात्व के ही अन्तर्गत कुदेव, कुगुरु, बुधर्म का स्वरूप बता कर उनकी उपासना का प्रतिषेध किया गया है। साथ ही गणगौर, शीतला, भूतप्रेतादि ध्यंतर, सूर्यचन्द्र शनिश्चरादिग्रह, पीर-गम्बर, गाय आदि पशू, अग्नि, जलाद के पूजत्व पर विचार किया गया है एवं क्षेत्रपाल, पदावती आदि एवं यक्ष-यक्षिका की पूजा-उपासना आदि का सयुक्तिक विवेचन प्रस्तुत किया गया है और इनके पूजत्व का निराकरण किया गया है।
सातवें अधिकार में सुक्ष्म मिथ्यात्व का वर्णन किया गया है, जो नाम मात्र के दिगम्बर जैनियों के साथ-साथ जिन अाज्ञा को मानने वाले दिगम्बर जैनियों में भी पाया जाता है क्योंकि वे जिनागम का मर्म नहीं समझ पाते। ये भी एक प्रकार से गृहीत मिथ्यादृष्टि ही है । यद्यपि इनके जैनेतर कुगुरु आदि के सम्पर्क का प्रश्न पैदा नहीं होता तथापि ये अपने स्वयं के अज्ञान ब गलतियों तथा दि० जैन वेषधारी तथावथित अज्ञानी गुमनों एवं उनके द्वारा लिखित शास्त्रों के माध्यम से अपनी विपरीत मान्यताओं की पुष्टि करते रहते हैं।
पंडित टोडरमल ने इन मिथ्यादृष्टियों का चार भागों में वर्गीकरण क्रिया है :
(१) निश्चयाभासी मिथ्यावृष्टि (२) 'व्यवहाराभासी मिथ्याष्टि (३) उभयाभामी मिश्यादृष्टि (४) सम्यक्त्व के सन्मुख मिथ्यारिट
निश्चयाभासी मिथ्यावृष्टि का विवेचन करते हा निश्चयाभासी जीव की प्रवृत्ति का विस्तार से वर्णन किया है एवं प्रात्मा को शुद्धता समझे बिना प्रात्मा को शुद्ध मान कर स्वच्छन्द होने का निषेध किया है।