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रचनाओं का परिचयात्मक अनुशीलन
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व्यवहाराभासी मिध्यादृष्टि का वर्णन करते हुए कुल अपेक्षा धर्म मानने एवं विचाररहित आज्ञानुसारिता का निषेध कर परीक्षाप्रधानी होने का समर्थन किया है। साथ ही व्यवहाराभामो जीव की प्रवृत्ति बताने हुए विषय कषाय की प्राशा से की जाने वाली अन्त देव, शास्त्र और गुरु की अंध भक्ति का निषेध किया है तथा व्यवहाराभासी जैनी सप्त तत्त्वों के समझने में क्या-क्या भूल करता है, उनका विस्तार से वर्गान किया है। वह सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की प्राप्ति के लिए भी बीसी-कैसी प्रविचारित प्रवृत्तियाँ करता है. इसका भी दिग्दर्शन कराया है।
उभयाभासी मिथ्यादृष्टियों की स्थिति का चित्रण करते हुए निश्चयनय और व्यवहारनय का बहुत गंभीर तर्कसंगत एवं विस्तृत विवेचन किया है तथा निश्चय मोक्षमार्ग और व्यवहार मोक्षमार्ग का भी विशेष स्पष्टीकरण किया गया है ।
सम्यक्त्व के सन्मुख मिध्यादृष्टियों के वर्णन में वस्तु स्वरूप को समझने की पद्धति का विस्तृत विवेचन करने के उपरान्त सम्यक्व की प्राप्ति में होने वाली क्षयोपशमलब्धि, विशुद्धिलब्धि, देशनालब्धि, प्रायोग्यलब्धि और करालब्धि, इन पाँच लब्धियों का सूक्ष्म विश्लेषण किया है ।
उक्त अधिकार के अन्त में यह भी स्पष्ट कर दिया है कि जो मिथ्यादृष्टियों में पाये जाने वाले दोषों का वर्णन किया है, वह दूसरों के दोषों को देखकर निन्दा करने के लिये नहीं, बरन् उस प्रकार के दोष यदि अपने में हों, तो उनसे बचने के लिये किया गया है ।
अधिकार में उपदेश के स्वरूप पर विचार किया गया है। समग्र जैन साहित्य विषय-भेद की दृष्टि से चार अनुयोगों में विभक्त है, जिनके नाम हैं- प्रथमानुयोग करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग | प्रत्येक अनुयोग की अपनी कथनशैली अलग-अलग है । कथनशैली का ज्ञान हुए बिना जैन साहित्य का मर्म समझ में नहीं आ सकता । अतः इस अधिकार में अनुयोगों का विषय और उनकी प्रतिपादन शैली का विस्तृत विवेचन किया गया है। प्रत्येक अनुयोग