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रचनाओं का परिचयात्मक अनुशीलन
"जैसे कोई गुमास्ता साहू के कार्यविप प्रवते है, उस कार्य को अपना भी कहै है, हर्ष-विषाद को भी पावै है, तिम कार्य विष प्रवर्तते अपनी गौर साहू की गई नौं नाहीं गिरे हैं, परन्तु अन्तरंग श्रद्धान ऐसा है कि यह मेरा कारज नाहीं । ऐमा कार्य करता गुमास्ता साहूकार है, परन्तु वह साहू के धन चुराय अपना मान तो गुमास्ता चोर हो कहिए। तैमें कर्मोदयजनित शुभाशुभ रूप कार्य को करता हुना तद्रूप परिशमै, तथापि अंतरंग ऐसा श्रद्धान है कि यह कार्य मेरा माहीं । जो शरीराश्रित व्रत संयम को भी अपना माने तो मिथ्यादृष्टि होय' ।" सम्यग्ज्ञानचंद्रिका
'सम्यग्ज्ञानचंद्रिका' पंडित टोडरमल के गम्भीर अध्ययन का परिणाम है। यह ३४०६ पृष्ठों का एक महान् ग्रंथ है जिसमें करणानुयोग के गम्भीर ग्रंथों को सरल, सुबोध एवं देशभाषा में समझाने का सफल प्रयत्न किया गया है । इसमें गणित के माध्यम से विषय स्पष्ट किया गया है। विषय को स्पष्ट करने के लिए यथास्थान सैकड़ों चार्ट्स जोड़े गए हैं तथा एक 'अर्थसहष्टि अधिकार' नाम से अलग अधिकार लिखा गया है। इसमें उनका अगाध पाण्डित्य और अद्भुत कार्यक्षमता प्रगट हुई है। यह टीकाग्रंथ अत्यन्त लोकप्रिय रहा है। उस समय सारे भारतवर्ष में चलने वाली प्रसिद्ध 'सैलियों' में इसका स्वाध्याय होता था। आज भी बिद्वद् समाज में इसका पूर्ण समादर है। इसकी महिमा के सम्बन्ध में ब्र० रायमल ने लिखा है :___ ताका नाम राम्यज्ञानचंद्रका है। ताकी महिमां वचन अगोचर है, जो कोई जिनधर्म की महिमा पर केवलग्यान को महिमां जाणी चाहाँ ती या सिद्धांत का अनूभवन करी । घगी कहिबा ऋरि कहा।
यह महाग्रंथ जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था, कलकत्ता द्वारा प्रकाशित हो चुका है । इसके आधार पर बनाई गई संक्षिप्त टीकाएँ भी । मो० मा प्र०, ५०५ देखिए प्ररतुल संध, पृ० ५२