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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व या 'मलजी' भी कहा करते थे । इनका वास्तविक नाम 'टोडरमल' ही है। टोडर और टोडरमल्ल तो छन्दानुरोध के कारण लिखे गए हैं पोंकि इनके जालेट पदी शाम होते हैं। इनके नाम के साथ 'पंडित' शब्द का प्रयोग विद्वत्ता के अर्थ में हुअा है । जैन परम्परा में 'पंडित' शब्द का प्रयोग किसी के भी साथ जातिगत अर्थ में नहीं होता है, सर्वत्र पंडित शब्द का प्रयोग विद्वत्ता के अर्थ में ही होता रहा है। आपके नाम के साथ 'आचार्यकल्प' की उपाधि भी लगी मिलती है तथा जैन समाज में आप 'प्राचार्यकल्प पंडित टोडरमल के नाम से ही अधिक प्रसिद्ध हैं। ये रीतिकाल में अवश्य हए पर इनका सम्बन्ध रीतिकाव्य से दूर का भी नहीं है और न यह उपाधि 'काव्यशास्त्रीय आचार्य' को सूचक है। इनका सम्बन्ध तो उन महान दिगम्बराचार्यों से है, जिन्होंने जैन साहित्य की वृद्धि में अभूतपूर्व योगदान किया है। उनके समान सम्मान देने के लिए इन्हें 'आचार्यकल्प' कहा जाता है। इनका काम जैन आचार्यों से किसी भी प्रकार कम नहीं है, किन्तु जैन परम्परा में प्राचार्यपद' नग्न दिगम्बर साधु को ही प्राप्त होता है, अतः इन्हें प्राचार्य न कहकर 'आचार्यकल्प' कहा गया है। जन्मतिथि ___पंडित टोडरमल की जन्मतिथि के बारे में कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है । पंडित चैनसुखदासजी ने उनका जन्म वि० सं० १७६७ (सन् १७४० ईस्वी) लिखा है। जबकि पं० बाथराम प्रेमी और डॉ० कामताप्रसाद जैन के अनुसार वि० सं० १७६३ है। उक्त विद्वानों १ "दक्षिण देस में पांच सात और ग्रंथ ताडपत्रां विष कर्णाटी लिपि मैं लिख्या वहां पधारे हैं, ताफ़ मलजी वां है, बाका यथार्थ व्याख्यान कर है।
- इ. दि० पत्रिका, परिशिष्ट १ २ अनन्तीति ग्रन्थमाला बम्बई एवं सस्ती अस्थमाला दिल्ली से प्रकाशित मोक्षमार्ग प्रकाशक के मुखपृष्ठ पर तथा दि० जन स्वाध्याय मंदिर, सोनगढ़ से प्रकाशित मोक्षमार्ग प्रकाशक के कवर पृष्ठ पर पं. टोडरमल के नाम के
आगे 'आचार्यकल्प' की उपाधि लगी हुई है। ३ वीरवाणी: टोडरमलांक, २६६, २६, २७७ ४ हिज. सा० इति०,७२ ५ हि० ज. सासं० इति०, १८५