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पंडित टोबरमत : व्यक्तित्व और कतृत्व पदरचना 'अपभ्रंश' और 'यथार्थ' को लिये हुए है। कुछ लोग इसे ढूंढाड़ी मानते है । मेरे विचार में देशभाषा से उनका प्राशय तत्कालीन प्रचलित लोकभाषा से है जो साहित्य में विशेषतः प्रयुक्त होती थी। जिस कारण से वह संस्कृत प्राकृत भाषा के विरुद्ध देशीभाषा का प्रयोग करते हैं, उसी कारण से उन्होंने शुद्ध दूंढाड़ी भाषा का प्रयोग उचित नहीं समझा होगा, क्योंकि वह सीमित क्षेत्र की भाषा हो जाती। अतः उनकी देशभाषा तत्कालीन प्रचलित साहित्य भाषा 'ब्रजभाषा' है ।
उनके गद्य की भाषा संस्कृतनिष्ठ है, जबक्रि पद्य की भाषा में तद्भव और देशी शब्दों का प्रयोग अपेक्षाकृत अधिक है । गा में तत्सम शब्दों की अपेक्षा तद्भव शब्द कम है, तद्भव की अपेक्षा देशी शब्द तथा उर्दू के पार न के बराबर हैं . भावाचक संज्ञा में 'पना. पर्ने, पने, त्य, त्व, ता, पाई, वपना', प्रादि रूप मिलते हैं। सर्वनाम और कारक चिन्हों में आलोच्य साहित्य की भाषा ब्रजभाषा के निकट है, जैसा कि तुलनात्मक चित्रों से स्पष्ट है। यही स्थिति अव्ययों व संख्यावाचक शब्दों के सम्बन्ध में भी है । कुछ संख्यावाचक इसके अपवाद हैं, वे खड़ी बोली के समान हैं । एक ही शब्द के कई उच्चारण वाले रूप मिलते हैं, जैसे-अनसारिअनुसार, तिनिका तिनका, किडूकुछ कछु धर्म>धर्म, इत्यादि । इसका कारण यह भी हो सकता है कि लिपिकारों ने शब्दरूपों में परिवर्तन कर दिया हो ।
बिभक्ति विनिमय की भी प्रवृत्ति है । सम्प्रदान के लिए 'के अर्थि' का प्रयोग बहुत मिलता है । वस्तुतः यह परसर्ग जैसा प्रयोग है । इसके अतिरिक्त 'कौं, को भी पाते हैं परन्तु यह कर्म के भी परसर्ग हैं। 'ताई' का प्रयोग भी मिलता है लेकिन बहुत कम । करण व अपादान में 'करि' का विशिष्ट प्रयोग है । यह विशेष उल्लेखनीय है कि सम्बन्ध के परसर्गों में अपभ्रंश के 'केर और तगु' का प्रयोग कहीं नहीं है । अधिकरण में विर्षे' का प्रयोग बहुत मिलता है । 'किए' का भी प्रयोग कहीं-कहीं हुआ है।