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__पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व पद्यानुवाद भी किया है । वह भी मन के साथ प्रकाशित हो चुका है । इसकी प्राचीन इस्तलिखित प्रतिलिपियाँ भी प्राप्त है ।।
यद्यपि इसमें गोम्मटसार जीवकाण्ड, कर्मकाण्ड के अतिरिक्त लब्धिसार और क्षपरणासार की भी स्तुति है, उन्हें भी अर्घ दिए गए हैं और गोम्मटमार के मूलस्रोत घबन्न, जयध बन गवं महाधवल की भी चर्चा है, कुन्दकुन्दाचार्य देव को भी याद किया गया है. तथापि मुख्य रूप से गोम्मटशार पर लक्ष्य रहा है। अतः इसका नाम 'गोम्मटसार पूजा' ही उपयुक्त है। यह नाम लेखक को भी इष्ट है एवं समाज में प्रचलित भी यहीं है।
सम्यम्ज्ञानचन्द्रिका में पंडित टोडरमल ने जिन महान ग्रंथों की भाषाटीका लिखी हैं, उन्हीं के प्रति अन्तर में उठी भक्ति-भावना ही इस रचना की प्रेरक रही है तथा उनके प्रति भक्तिभाव प्रकट करना ही इसका उद्देश्य रहा है। ऐसा लगता है कि इसकी रचना मम्यग्ज्ञानचंद्रिका की रचना के उपरान्त हुई होगी। जन सम्यग्ज्ञानचंद्रिका समाप्त हुई तो पंदित टोडरमल को बहुत प्रसन्नता हुई थी, जिसका उल्लेन उन्होंने म्बयं किया है । उत्त, प्रसन्नता के उपलक्ष्य में उन ग्रंथों की पूजा का उत्सव किया गया होगा और उस निमित्त इस पूजा का निर्माण हुआ लगता है। सम्यग्ज्ञानचंद्रिका की समाप्ति माघ शुक्ला ५ वि मं० १८१८ को हुई है, अत: उसी समय इसका रचनाकाल माना जा सकता है । यदि और पले की इस रचना को माने तो वि० सं० १८१५ तक पहुंचा जा सकता है क्योंकि तब तक सम्यग्ज्ञानचंद्रिका तैयार हो चुकी थी। पूजा की जय माल में इस टीका के लिये जाने का रपष्ट उल्लेख है।किल्लु साथ ही राजा जयसिंह के नाग का भी उल्लेख है जिसरो संशय उम्पन्न होता है कि
१ श्री कुन्थुसागर स्वाध्याय सदन, रई २ "प्रारंभी प्रणा गयौ, शास्त्र सुखद प्रासाद । प्रब भये हम कृतकृत्य दर, पायो अति आमाद ।।"
... T० ० प्र० । गोम्मटसार पूजा, १२