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पूर्वधामिक व सामाजिक विचारधाराएं और परिस्थितियां
( ५ ) दीपक से पूजा नहीं करना। ( ६ ) प्रासिका नहीं लेना। (७) फूलमाल नहीं करना । (८) भगवान का अभिषेक (पंचामृत अभिषेक) नहीं करना । (६) रात में पूजन नहीं करना । (१०) शासन देवी को नहीं पूजना । (११) धिा अन्न भगवान को नहीं चढ़ाना। (१२) हरे फलों को नहीं चढ़ाना । (१३) बैठ कर पूजन नहीं करना।
उक्त सन्दर्भ में पं० नाथूराम प्रेमी लिखते हैं, "बहुत संभव है कि ढूंढियों (श्वेताम्बर स्थानकवासियों) में से निकले हुए तेरापंथियों के जैसे निंद्य बतलाने के लिए भट्टारकों के अनुयायी इन्हें तेरापंथी कहने लगे हों गौर धीरे-धीरे उनका "दसा प्र करचा वाइल' पक्का हो गया हो- साथ ही वे स्वयं तेरह से बड़े वीसपंथी कहलाने लगे हों। यह अनुमान इसलिए भी ठीक जान पड़ता है कि इधर के सौ-डेढ़सो वर्ष के ही साहित्य में तेरापंथ के उल्लेख मिलते हैं, पहले के नहीं।
प. नाथूराम प्रेमी का उक्त कथन ठीक नहीं, क्योंकि उसके पहले के दिगम्बर तेरापंथ सम्बन्धी कई उल्लेख प्राप्त हैं । लगभग ३०० वर्ष पूर्व के कविवर जोधराज गोदीका के प्रवचनसार भाषा प्रशस्ति' एवं कामां वालों के सांगानेर बालों को लिखे गए पत्र के उल्लेख किए जा चुके हैं। पं० बखतराम साह ने वि० सं० १६८३ में तथा श्वेताम्बराचार्य मेधविजय ने वि० सं० १६८० में दिगम्बर जैन तेरापंथ की उत्पत्ति मानी है, इनकी चर्चा भी की जा चुकी है । दूसरी
और श्वेताम्बर तेरापंथ की स्थापना ही विक्रम की १६वीं शती के पूर्वार्द्ध में हुई है । इस प्रकार, दिगम्बर तेरहपंथ, श्वेताम्बर तेरापंथ से
' जै० सा• इति०, ४६३ २ (क) जैन सा० इति०, ४१३
(ब) वल्लभ संदेश, १६