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बनारसीदासजी ने तत्समय में व्याप्त पाखण्डों और सिद्धान्त ग्रंथों के नाम पर अपनी मनचाही बातों को चलाने वाले लोगों का विरोध किया था। अनेक ग्रन्थों के अध्ययनोपरान्त वे समयसार की पोर मुड़े । सत्य का अनुभव उन्होंने समयसार में किया। उनकी कृति 'नाटक समयसार' इसी सत्य को तत्कालीन प्रचलित भाषा के माध्यम से सुपाठ्य बनाने का प्रयास है । तब आगरा में आध्यात्मिक 'सैलियो' नियमित रूप से चलती थीं, जिनमें विभिन्न सैद्धान्तिक ग्रंथों पर चर्चाएँ हुमा करती थीं । इनमें जिज्ञासुओं के अतिरिक्त अनेक अधिकारी विद्वान् उपस्थित हुआ करते थे। बनारसीदासजी की विचारधारा इन 'सलियों के माध्यम से विशेष रूप से जन-सामान्य में फैली। कालान्तर में यह विचारधारा (ज्ञेय और अनुभवनीय - शुद्ध
आत्मा ही है) अन्य स्थानों में भी फली। टोडरमलजी के समय जयपुर में इस 'सली' को चलाने वाले बाबा बंशीधरजी थे 1 इस प्रकार इसका बीज-बपन किसी न किसी रूप में हो चुका था। आवश्यकता अब केवल एक ऐसे विद्वान की थी जो मान्य सिद्धान्त ग्रंथों के आधार पर इसको पल्लवित एवं पुष्पित कर सके तथा इसकी जड़ें दृढ़, स्थायी
और पुष्ट बना सके। कहने की आवश्यकता नहीं कि इसके लिए कितने विशाल और तलस्पर्शी ज्ञान तथा तर्कबुद्धि की आवश्यकता थी। पंडित टोडरमलजी के रूप में वह प्रतिभा अवतरित हुई, जिसने अनेक कृतियों के माध्यम से -- विशेषत: मोक्षमार्ग प्रकाशक के रूप में यह महान् दायित्व पूरा किया । भट्टारकवाद, उसका विरोध और विरोध के कारण अनेक थे। इन सबका प्रस्तुत लेखक डॉ० भारिल्लजी ने सप्रमाण उल्लेख विवेचन किया है जो मूल में पठनीय है (प्रस्तुत ग्रंथ अध्याय १) । अठारहवीं शताब्दी में पं० टोडरमलजी दि० जैन-जगत में जो आध्यात्मिक और सामाजिक क्रान्ति कर रहे थे, उसका महत्त्व प्रस्तुत नन्थ में मूलरूप में पठनीय है । पंडित टोडरमलजी जैसे महान् विद्वान् के कार्यों का सम्यक् रूप से महत्त्व-दिग्दर्शन बहुत कठिन और अध्ययन सापेक्ष कार्य है। डॉ० भारिल्लजी ने इसे सफलतापूर्वक सम्पन्न किया है, तदर्थ वे बधाई के पात्र हैं।