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पूर्व धार्मिक व सामाजिक विचारधाराएं और परिस्थितियाँ धीरे-धीरे भट्टारकों और महन्तों के अधिकार में आ गई और अन्त में इसने एक प्रकार से धार्मिक दुकानदारी का रूप धारगा कर लिया।
इस प्रकार भट्टारकों का प्रभुत्व ममाज पर बढ़ता चला गया और समाज इनके शिकंजे में जकड़ता चला गया। मठों, मंदिरों और तीर्थों की व्यवस्था पर भट्टारकों का एकाधिकार हो गया। वे लोग उनकी व्यवस्था में सक्रिय भाग लेने लगे। यहां तक कि मंदिरों को धान में नीली खतीबाड़ी भी करने लगे। कुछ प्राप्त दानपत्र व शिलालेख इसके ऐनिहासिक प्रमागा १२ । प्राध्यात्मिकता का स्थान क्रियाकाण्ड ने ले लिया और प्रवृत्ति में शिथिलाचार उत्तरोतर बढ़ता ही चला गया । धार्मिक मान्यतानों में विकृति प्रागई। साधना के स्थान, आराधना के नाम पर प्राइम्बर और बाहरी क्रियाकाण्ड के स्थल मात्र बन वार रह गाए । मंदिरों में ही जीमन और खेल-कूद होने लगे तथा यहीं पर उठना-बैठना, सोना-रहना और राधा अन्न भगवान को चढ़ाना आदि वीतगगना के विपरीत क्रियाएं होने लगी । सांसारिक क्रियानों में रत और सवस्त्र होते हुए भी भद्रारक लोग अपने को मूनि जाहलाते थे । वे श्रावक संघ पर मनमाना शामन करने लगे। बात-बात पर धावकों से कर वमूल किया जाने लगा। पंडित टोडरमल संघपद का उद्धरण देते हाा लिखते हैं :जिनसे जन्म नहीं हुआ, जिन्होंने मोल नहीं लिया, जिनका कूछ कर्ज देना नहीं है, जिनसे किसी प्रकार का कोई सम्बन्ध नहीं है, फिर भी ये (भट्टारक) गृहस्थों को चैल के सामान जोतते हैं, बलात् दान लेते हैं। इस संसार में कोई पूछने वाला भी नहीं है, कोई न्याय करने वाला भी नहीं है, क्या करें ?
किसी में उनका विरोध करने की हिम्मत न थी। कोई कुछ वाहने की हिम्मत करता तो मंदिरों से निकाल दिया जाता, समाज १० सा इति०, ४६६ २ वही, ४८४,४८६ 3 वीरवाणी : टोडरमलांबः, २८८ ४ मो० मा०प्र०, २६६
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जब उसनाचा
वः, २८८