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पंजित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व इन सब बातों का प्रभाव यह हुआ कि सैद्धान्तिक पक्ष के अतिरिक्त बाह्याचार में साधारण जैनियों और हिन्दुओं में बहुत कम अन्तर रह गया। परशुराम चतुर्वेदी के शब्दों में "उनका (जैनियों का) मूख्य ध्येय पूर्ववत् स्थिर न रह सका और विक्रम की 8 वीं, १०वीं शताब्दी तता आकर उनकी साधना के अन्तर्गत विविध बाह्याचारों का समावेश हो गया। समकालीन हिन्दू और बौद्ध पद्धतियों से बे बहुत कुछ प्रभावित हो गये और इन धर्मों के साधारगा अनुयायियों में नहत कम अन्तर दीख पड़ने लगा ।"
उपरोक्त परिस्थितियों में भट्टारका का स्वरूप साधुत्व से अधिक शासकत्व की अोर झुका और अन्त में यह प्रकट रूप से स्वीकार भी किया गया १२ वे अपने को राजगुरु कहलाते थे और राजा के समान ही पालकी, छत्र-चंबर, गादी आदि का उपयोग करते थे। वस्त्रों में भी राजा के योग्य जरी आदि से सुशोभित वस्त्र उपयोग किये जाते थे। कमण्टनु और पिच्छि में सोने-चांदी का उपयोग होने लगा था। यात्रा के समय राजा के समान ही सेवक-सेविकानों और गाड़ी-घोड़ों का इन्तजाम रखा जाता था तथा अपने-अपने अधिकारक्षेत्र का रक्षगा भी उसी आग्रह से किया जाता था। इसी कारणा भट्टारकों का पट्टाभिषेक राज्याभिषेक की तरह बड़ी धूम-धाम से होता था। इसके लिये पर्याप्त धन खर्च किया जाता था। इनके उपदेश से नये-नये सिद्ध क्षेत्र, अतिशय क्षेत्र आदि स्थापित होने लगे । इन मंदिरों और तीर्थी के व्यय-निर्वाह के लिये धन संग्रह किया जाने लगा। धन संग्रह करने की नई-नई तरकीबें निकाली गई और प्रबंध के लिए कोठियाँ खोल दी गई। बहुत सी कोठियों की मालिकी भी १ उ. भा० सं०प०, ४७ र चन्द्रसुकीर्ति पट्टोधर राजनीति राया मगा रंजी।
बानारसि मध्य विवाद' करी धरी मान मिथ्यातको मनकुं मंजी ।। पालखी छत्र सुखासन राजित भ्राजित दुर्जन मनकु गंजी । हीरजी ब्रह्म के साहिब सद्गुरु नाम लिए भवपातक भंजी ॥२१८||
- भ० सं० २८१ एवं लेखांक ७२५ ३ भ० सं० प्रस्तावना, ५