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पूर्व-धार्मिक व सामाजिक विचारधाराएं और परिस्थितियाँ
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किया था और उन्हें मंदिर से निकाल दिया गया था । तब उन्होंने क्रुद्ध होकर प्रतिज्ञा की कि मैं नया पंथ चलाऊँगा । उनके साथ बारह अध्यात्मी और शामिल हो गए। उनमें एक राजमंत्री भी था | उन्होंने एक नया मंदिर बना लिया। इस तरह एक नया पंथ चला दिया।
इसी बात को चन्द्रकवि इस प्रकार लिखते हैं कि जब सांगानेर में नरेन्द्रकीर्ति भट्टारक का चातुर्मास था तब उनके व्याख्यान के समय अमरचंद गोदीका का पुत्र ( जोधराज ) जो सिद्धान्तशास्त्रों का ज्ञाता था, बीच-बीच में बहुत बोलता था । उसे व्याख्यान में से जूते मार कर निकाल दिया गया था। इससे चिढ़ कर अनादि से चली अन्य तेरह बातों का उत्थापन करके उसने तेरहपंथ चलाया । यद्यपि
१ तिनिमें अमरा भौंसा जाति, गोदीका यह व्योक कहाति । धन को गौरव अधिक तिन पर्यो, जिनवाणी को अविनय करघो ||३१|| तब वाक श्रावनि विचारि, जिन मंदिर ते दियो निकारि ।
जब खाने कोनों क्रोध अनंत, कहीं चले हों नूतन पंथ || ३२ ॥ । लब चे अध्यातम कितेक द्वादश मिले सबै भए एक
नये देहुरो बन्यो और
लोगन मिलिकेमतो उपायों तेरहपंथ नाम ठहरायो । विनि में मिलि नृपमंत्री एक, बांधी नये पंथ की टेक ||३५||
- मिध्यात्व खंडन
संवत् सोलास पचोत्तरे कार्तिक मास अमावस कारी । कीर्तिनरेन्द्र भट्टारक सोभित, चातुर्मास सांगावति धारी । गोदीकारा उपरो भ्रममुत, सास्त्रसिथत पढ़ाइयो भारी बीच ही बीच बसान बोलत, मारि निकार दियो दुख भारी || तदि तेरह बात उथापि धरी, इह आदि अनादि को पंथ निवारय । हिन्दू के मारे मलेच्छ ज्यों रोवत, तसे त्रयोदग़ रोय पुकार्यो । पागररूपां मारि जिनालय से विडारि दिए,
तातें कुभाव चारि न माने गुरु जती करें। झुठो दंभ धरं फिर झूठ ही विवाद करे
छोटे नांहि रीस जानहार कुगती को ||
श्र० क ०
भूमिका, ५२