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________________ वायं-विषय और दार्शनिक विचार १७६ न तो पाप-पुण्य के पुरुषार्थ से होता है और न उनके द्वार। संचित कर्मों से अर्थात् भाग्य से । उसकी उपलब्धि तो एक मात्र ज्ञानानन्द स्वभावी प्रात्मस्वरूप के प्रति सचेष्ट सम्यक पुरुषार्थ से ही होती है और इसी : आत्मसन्मुख पुरुषार्थ को पंडित टोडरमल ने सच्चा पुरुषार्थ माना है तथा आत्महित रूप कार्य की सिद्धि में इसे ही प्रधान स्थान दिया है । निमित्त-उपावान कारण के बिना कार्य की उत्पत्ति सम्भव नहीं है । कार्य की उत्पादक सामग्री को ही कारणा कहते हैं। कारण दो प्रकार के होते हैं - उपादान कारण और निमित्त कारण । जो स्वयं कार्यरूप परिणमित हो, उसे उपादान कारण कहते हैं । जो स्वयं कार्यरूप परिरामित न हो, परन्तु कार्य की उत्पत्ति में अनुकुल होने का आरोप जिस पर पा सके उसे निमित्त कारग कहते हैं । घट रूप कार्य का मिट्टी उपादान कारण है और चक्र, दण्ड एवं कुम्हार निमित्त कारण हैं। किसी एक पदार्थ में जब कोई कार्य निष्पन्न होता है तो वहाँ दूसरा पदार्थ भी नियम से विद्यमान होता है जो उस कार्य को उत्पन्न भी नहीं करता, उसमें योग भी नहीं देता, किन्तु उस कार्य की उत्पत्ति के साथ अपनी अनुकूलता रखता है। वस्तुस्थिति के इस नियम को उपादान-निमित्त, सम्बन्ध कहते हैं। जिस पदार्थ में कार्य निष्पन्न होता है उसे उपादान और उस कार्य को उपादेय अथवा नैमित्तिक कहते हैं तथा संयोगी इतर पदार्थ को निमित्त कहते हैं। एक पदार्थ को ही उपादान की अपेक्षा कथन करने पर उपादेय और निमित्त की अपेक्षा कथन करने पर नैमित्तिक कहा जाता है । निमित्त-उपादान की स्वतन्त्र स्थिति तथा उनका अनिवार्य सहचर - ये दो इसमें मुलभूत तथ्य हैं, जिनमें से एक को भी उपेक्षा नहीं की जा सकती है । निमित्त को बलपूर्वक कार्य के समीप १ कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा २१७ २ जैनतत्त्व मीमांसा, ६० । उपादान-निभिस्त संवाद, दोहा ३ - .-
SR No.090341
Book TitlePandita Todarmal Vyaktitva aur Krititva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages395
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Story
File Size7 MB
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