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परिणाम दुखःसुख है । इनमें अनुकूल इच्छा को मनुष्य भोगना चाहता है और प्रतिकूल को छोड़ना चाहता है । पंडितजी का तर्क है इन्हें पूर्व जन्म के कर्मफल समझ कर मनुष्य को अपने वर्तमान जीवन का संतुलन नहीं खोना चाहिए । परन्तु जहाँ तक कषायों का संबंध है, ये मनुष्य की सबसे घातक इच्छाएँ हैं। ये हैं- काम, क्रोध, मान, और लोभ । ये न तो विषयगत इच्छाओं की तरह जीवन के अस्तित्व के लिये जरूरी हैं और न पाप-पुण्यगत इच्छात्रों की तरह पूर्व जन्म का ऋण। फिर भी मनुष्य इनके चक्कर में पड़ कर अपना और दूसरे का सर्वनाश कर डालता है। वीतरागता इन्हीं इच्छाओं पर रोक लगाने के लिए है । मनुष्य वस्तुतः जिन चीजों से राग करता है, वे जड़ हैं । काम, क्रोध, मान, और लोभ इसी राग की तीव्रतम चेतना की विभिन्न प्रतिक्रियाएं हैं। इसीलिए कहा गया है कि निर्मोही गृहस्थ अच्छा है उस मुनि से जो मोही है । 'अनगारो गृही श्रेयान् निर्मोही मोहिनो मुनेः' । प्रस्तुत ग्रन्थ
प्रस्तुत ग्रन्थ सन्दर्भित विषय पर पहिला मौलिक और प्रामाणिक शोध-प्रबन्ध है | निर्देशक होने के नाते मैं कह सकता हैं कि इसके लेखन में - श्री भारिल्ल ने प्राप्त तथा प्राप्य सामग्री के अनुसंधान और अनुशीलन में कोई कसर नहीं रखी, परन्तु यह शोध का प्रारम्भ हैं, ग्रन्त नहीं | पंडितजी के पूर्व प्राचार्य कुंदकुंद तक विशुद्ध अध्यात्म की लम्बी धारा है। इस परम्परा का नवीनीकरण कर जनमानस में सच्ची अध्यात्म विवेक दृष्टि जाग्रत करने के लिए पूज्य कानजी स्वामी की प्रेरणा से जो कुछ कार्य हो रहा है, यह शोध भी उसी का एक अंग है। मैं चाहता हूँ कि पूज्य आचार्य कुंदकुंद से लेकर पूर्व - टोडरमल तक इस विचारधारा के महत्त्वपूर्ण विचारों की वृत्तियों पर ऐसा शोध - पूर्ण प्रामाणिक ग्रन्थ तैयार किया जाय जो समूची विचारधारा का समकालीन संदर्भों में तथा जीवन के व्यावहारिक और आध्यात्मिक मूल्यों का अध्ययन प्रस्तुत करे। किसी भी विचारधारा के जीवित रहने के लिये उस पर शोधपरक अध्ययन बहुत जरूरी है। पूज्य कानजी स्वामी के प्रति यही श्रद्धांजलि हो सकती है कि यह काम उनके जीवन काल में ही पूरा हो जाए ।
- देवेन्द्रकुमार जैन
११४, ऊपा नगर इन्दौर ( म०प्र०)
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