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घण्य-विषय और दार्शनिक विचार
२०३ चर्चा जब भी चलती है, जनसाधारण का ध्यान दूसरे जीवों को मारने, सताने या रक्षा करने आदि की अोर ही जाता है। हिंसा और अहिंसा का सम्बन्ध प्रायः दूसरों से ही जोड़ा जाता है । दूसरों की हिंसा मत करो, बस यही अहिंसा है, ऐसा ही सर्वाधिक विश्वास है । अपनी भी हिसा होतो है, इस ओर बहुत कम लोगों का ध्यान जाता है। जिनका जाता भी है तो अात्महिंसा का अर्थ विष भक्षरणादि द्वारा प्रात्मपात (आत्महत्या) ही मानते हैं । अन्तर में राग-द्वेप की उत्पत्ति भी हिंसा है. इस बात को बहुत कम लोग जानते हैं। यह तथ्य पंडित टोडरमल की दृष्टि से प्रोझल न रह सका । वे लिखते हैं :
"अपने शुद्धोपयोग रूप प्राग का घात रागादिक भावनि से होय है, तिसत रागादिक भावनि का अभाव सोई अहिंसा है । आदि शब्द से द्वेष, मोह, काम, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, शोक, जुगुप्सा प्रमादादिक समस्त विभाव भाव जानन' ।"
व्यवहार में जिसे हिसा कहते हैं, जैसे किसी को सताना, दुःख देना आदि, बह हिंसा न हो; यह बात नहीं है। वह तो हिंसा है ही, क्योंकि उसमें प्रमाद और कपाय का योग रहता है । अठ, चोरी, कुशील और परिग्रह भी हिंसा के ही रूपान्तर हैं, क्योंकि इन सत्र में रागादि विकारी भावों का सद्भाव होने से प्रात्मा के चैतन्य प्रारणों का घात होता है ।
हिंसा दो प्रकार की होती है - द्रव्यहिंसा और भाबहिंसा । जीवों के घात को द्रव्याहिंसा कहते हैं और घात करने के भाव को भावहिंसा ।
अहिंसा के सम्बन्ध में एक भ्रम यह भी चलता है कि मारने का भाव हिंसा है तो बचाने का भाव अहिंसा होगा 1 शास्त्रों में उसे व्यवहार से अहिंसा कहा भी है, किन्तु वह भी राग रूप होने से वस्तुतः हिंसा ही है । वीतराग भात्र ही अहिसा है, वस्तु का स्वभाव 'पु. भा. टी०, ३४ २ (क) तत्त्वार्थमूत्र, य० ७ सू० १३
(ख) पुरुषार्थसिम्युपाय, श्लोक ४६ 3 पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, श्लोक ४२
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