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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कतत्व होने से वही धर्म है और वही मुक्ति का कारण है । बचाने के शुभ भाव रूप अहिंसा, जो कि हिंसा का ही एक रूप है, पुण्य बंत्र का कारण है, मुक्ति का कारण नहीं । उक्त तथ्य को पंडित टोडरमल ने इस प्रकार व्यक्त किया है :___तहाँ अन्य जीवनि कौं जिवात्रने का वा सुखी करने का अध्यत्रसाय होय सो तो पुण्य बंध का कारण है, पर मारने का बा दुःखी करने का प्रध्यवसाय होय सो पाप बंध का कारगा है । ऐसें अहिंसावत सत्यादिक तो पुण्य बंध की कारण हैं, पर हिंसावत् असत्यादिक पाप बंध कौं कारण हैं। ए सर्व मिथ्याध्यवसाय है, ते त्याज्य हैं। तातें हिसादिवत् अहिंसादिक की भी बंध का कारण जानि हेय ही मानना । हिंसः विथै पाणे व बुद्धि होष सोक, आयु पूरा हुबा बिना मरै नाहीं, अपनी द्वेष परिणति करि आप ही पाप बांध है । अहिंसा विष रक्षा करने की बुद्धि होय सो बाका प्रायु अवशेष बिना जीवे नाहीं, अपनी प्रशस्त राग परिणति करि आप ही पुण्य बांध है। ऐसे ए दोऊ हेय हैं। जहां वीतराग होय दृष्टा-ज्ञाता प्रवर्त, तहाँ निर्बन्ध है । सो उपादेय है । सो ऐसी दशा न होय, तावत् प्रशस्त राग रूप प्रवती, परन्तु श्रद्धान तो ऐसा राखौ - यह भी बंध का कारण है, हेय है । श्रद्धान विर्षे याकौं मोक्षगार्ग जानें मिथ्या दृष्टि ही हो है।"
दूसरों की रक्षा करने के भाव को मुक्ति का कारण मानने वालों से वे पूछते हैं - 'सो हिंसा के परिणामनि ते तो पाप हो है पर रक्षा के परिणामनि त संबर (बंध का प्रभाव) कहोगे तो पुण्य बंध का कारण कौन ठहरेगा।"
यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि ऐसी अहिंसा तो साधु ही पाल सकते हैं, अतः यह तो उनकी बात हुई । सामान्यजनों (श्रावकों) को तो दया रूप (दूसरों को बचाने का भाव) अहिंमा ही सच्ची है । प्राचार्य अमृतचन्द्र ने श्रावक के आचरण के प्रकरण में ही इस बात को लेकर यह सिद्ध कर दिया है कि अहिंसा दो प्रकार की नहीं होती।
१ मो मा०प्र०, ३३१-३२ २ वहीं, ३३५