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पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व पोपे जाय, तसे कार्य कर है । बहुरि हिमादिक निपजाबै है । सो ए कार्य तो अपना वा अन्य जीवनि का परिणाम सुधारने के अथि कहे हैं। बहरि तहाँ किंचित हिसादिक भी निपज है, तो थोरा अपराध होय, गुण बहुत होय सो कार्य करना का ह्या है। सो परिणामनि की पहचान नाहीं । अर यहाँ अपराध केता लाग है, गुगा केता हो है, मो नफा-टोटा का ज्ञान नाही का विधि-विधि का ज्ञान नाहीं । बहरि शास्त्राभ्यास कर है। तहाँ पद्धति रूप प्रवत है। जो वां है तो औरनि को सुनाय दे हैं । जो पढ़े है तो आप पढ़ि जाय है। सन है तौं कहै है सो सुनि ले है । जो शास्त्राभ्यास का प्रयोजन हैं, ताकौं अाप अन्तरंग विर्ष नाहीं अवधारे है । इत्यादि धर्मकार्यनि का मर्म को नाहीं पहिचाने । केईक तो कूल विषं जैसे बड़े प्रवर्ते, तैसें हमी भी करना अथवा और करै हैं, तसे हमकौं भी करना का ऐसे किए हमारा लोभादिक की सिद्धि होगी, इत्यादि बिचार लिएं अभूतार्थ धर्म कौं साधे हैं।" उभयाभासी
ये वे लोग हैं जिनकी समझ में निश्चय-व्यवहार का सच्चा स्वरूप तो पाया नहीं है,पर सोचते हैं कि जैन दर्शन में दोनों नयों का उल्लेख है, अतः हमें दोनों मयों को ही स्वीकार करना चाहिए | निश्चय-व्यबहार का सही ज्ञान न होने से निश्चयामामी के समान निश्चय नय को और व्यवहाराभासी के समान व्यवहार नय को स्वीकार कर लेते हैं। यद्यपि बिना अपेक्षा समझे इस प्रकार स्वीकार करने में दोनों नयों में परस्पर विरोध स्पष्ट प्रतीत होता है, तथापि करें क्या? इनकी मानसिक स्थिति का चित्रण पंडित टोडरमल ने इस प्रकार किया है:
"यद्यपि ऐसे अंगीकार करने विर्षे दोऊ नयनि विर्षे परस्पर विरोध है तथापि कर कहा, साँचा तो दोऊ नयनि का स्वरूप भास्या नाहीं पर जिनमत विर्षे दोय नय कहे, तिनि विर्षे काहू को छोड़ी भी जाती नाहीं । तातें भ्रम लिए दोऊनि का साधन साधे हैं, ते भी जीत्र मिथ्यादृष्टि जाननें। १ मो. मा० प्र०, ३२२-२४ २ वहीं, ३६५